बाढ़ के चलते इस राज्य के लोगो का हुआ बूरा हाल , पेड़ पर चढ़कर शौच करने को मजबूर

देखते ही प्रदीप पासवान, राकेश सहनी, राजेंद्र सहनी के साथ 15-20 लोग पहुंचते हैं. सभी बताते हैं कि भोजन के बिना त एक दो दिन रहलो जा सकई छई, लेकिन शौचालय के बिना त बड़ा आफत हई.

शर्म के बात त ई हई कि 12-13 साल के लड़का सब से लेके 50 साल तक के लोग थर्मोकोल के नाव से पानी में जाके पेड़ पर चढ़ के शौचालय करई छई. शौचालय कुछ बनल हई, लेकिन एतना अधिक लोग के लेल कुछिओ न हई . जे शौचालय हई ओतना में औरतो सबके भी दिक्कत होइछई.

आथर पुल पर सुरेश कुमार, रवींद्र साह, रामेश्वर राय, हरदेव पासवान, सुरेश चौधरी, अंजर खान, रेयाज अहमद खान, अरविंद सहनी का कहना है कि नाव कहने को 42 है, लेकिन चलता आधा भी नहीं है.

पुल से दक्षिण बिंदा तक दो किचेन चल रहा है, उसमें भी आधा लोगों को एक शाम का खाना मिलता है. लोगों की संख्या के हिसाब से चापाकल और शौचालय नहीं है. पंचायत में डूबने से चार लोगों की मौत भी हो गयी, लेकिन पीड़ित परिवारों को मुआवजा भी नहीं मिला.

बिंदा गांव से ही विस्थापितों के तंबू शुरू हो जाते हैं. कुछ आगे बढ़ने पर सुशीला देवी, आशा देवी व सीमा कुमारी हाथ में हंसूआ व प्लास्टिक का बोरा लिये जाते मिलती हैं. पूछने पर बताती हैं कि भैंस के लेल घास काटे द्वारिकानगर जा रहली ह. घर में के भूंसा सड़ गेल.

भैंस के जान त बचाबे के हई. आगे बढ़ने पर तंबू में ही गाय का दूध दुह रही संजय सहनी की पत्नी रूपा देवी बताती हैं कि घर त पानी में डूबल हय. गाय ला 15 रुपइए किलो भूसा खरीदे के होइअ. अपने बाहर रहई छथिन, 10 दिन से इहां छी सरकारियो भूंसा न मिललई ह, बच्चो सब छोट है.

मुशहरी के बिंदा गांव से लेकर बोचहां के आथर बांध पर सड़क के दोनों किनारे बाढ़ पीड़ित तंबू बनाकर विस्थापित जिंदगी जी रहे हैं. करीब पांच किमी तक लगे तंबू बाढ़ की तबाही को दर्शाते हैं.

इन परिवारों के सामने खाने-पीने, बैठने, रहने, सोने का कोई ठौर-ठिकाना नहीं है. पशुओं को जिंदा व सुरक्षित रखना भी आसान नहीं है. बाढ़ पीड़ितों की पीड़ा शर्मिंदगी भरी है. हालत यह है कि शौच के लिएं इन्हें पेड़ों का भी सहारा लेना पड़ रहा है.