चीन के साथ मिलकर पाकिस्तान ने शुरू किया ये, अफगानिस्तान ने भी दिया साथ

अमेरिका ने तालिबान को काबुल से बेदखल कर दिया लेकिन पिछले 20 वर्षो में अफगान जनता द्वारा चुनी हुई हामिद करजई और अशरफ गनी सरकारों के विरुद्ध तालिबान की पीठ कौन ठोंक रहा है? क्या पाकिस्तान की सक्रिय सहायता के बिना तालिबान जिंदा रह सकते हैं?

तालिबान के जितने भी गुट हैं, वे सब पाकिस्तान में स्थित हैं. उनके नाम हैं- क्वेटा शूरा, पेशावर शूरा और मिरानशाह शूरा! पाकिस्तान अब खुले में तो तालिबान का विरोध करता है लेकिन उसने तालिबान को अपनी अफगान-नीति का मुख्य अस्त्र बना रखा है.

इसके बावजूद उसे पता है कि गिलजई पठानों का यह संगठन अंततोगत्वा पाकिस्तान के पंजाबी शासकों को धता बता देगा. जो पठान अंग्रेजों, रूसियों और अमेरिकियों के हौसले पस्त कर सकते हैं, वे पाकिस्तान के लिए भी बहुत बड़ा सिरदर्द बन सकते हैं. वे पख्तूनिस्तान की मांग फिर से जीवित कर सकते हैं. वे काबुल नहीं, पेशावर को अपनी राजधानी बनाना चाहेंगे.

पाकिस्तान और चीन उन देशों में से हैं, जो अमेरिकी और नाटो फौजों के अफगानिस्तान में रहने का घोर विरोध करते रहे हैं, क्योंकि उनके द्वारा पोषित तालिबान का उन्मूलन करना उनका मुख्य उद्देश्य रहा है.

यदि पाकिस्तान का समर्थन और सक्रिय सहयोग नहीं होता तो क्या मुजाहिदीन और तालिबान काबुल पर कब्जा कर सकते थे? बबरक कारमल और नजीबुल्लाह को अपदस्थ करने में उस समय अमेरिका ने भी पाकिस्तान की सक्रिय सहायता की थी लेकिन आतंकवादियों द्वारा अमेरिका में किए गए हमलों ने सारा खेल उलट दिया.

अफगानिस्तान के मामले में पाकिस्तान और चीन का ताजा रवैया तारीफ के काबिल है लेकिन यह रवैया बहुत ही हैरान करनेवाला भी है. दोनों देशों के विदेश मंत्रियों ने अफगानिस्तान के विदेश मंत्री मो. हनीफ अतमार के साथ जो संवाद किया, उसमें साफ-साफ कहा कि अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी में जल्दबाजी न की जाए. यों तो ये फौजें एक मई को लौटनी थीं लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इस तारीख को बढ़ाकर 11 सितंबर कर दिया है.