सुप्रीम कोर्ट की एक पूर्व सहायिका के भारत के मुख्य न्यायाधीश पर यौन उत्पीडऩ के आरोप लगाने के बाद अन्य न्यायाधीशों ने महिला सहायकों की जगह आवासीय दफ्तरों पर पुरुष कर्मचारियों को तैनात करने की मांग की है। आरोप लगने के बाद मुख्य न्यायाधीश श्री रंजन गोगोई ने हाल ही में एक बैठक में कहा कि सुप्रीम कोर्ट के कई जजों ने अपने आवासीय दफ्तरों में महिला सहायक कर्मचारियों की जगह पुरुष सहायक कर्मचारियों की ही तैनाती की मांग की है।
इससे उन्हें अपने आवासीय कार्यालयों पर काम करने में ज्यादा सुविधा होगी। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि ऐसा करना मुमकिन नहीं है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में 60 फीसदी महिलाएं काम कर रही हैं। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पर लगे आरोपों के बाद अन्य जज भी महिला लॉ सहायकों के साथ काम करने में असहज हो रहे हैं। न्यायाधीशों की इस तरह की चिंता ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। सबसे बड़ा सवाल यही है कि सुप्रीम कोर्ट में ही महिला सहायकों को हटाने की मांग से पूरे देश में महिलाओं को नौकरी देने में अड़चने आ सकती हैं।
आज महिलाएं दुनियाभर में सभी क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य कर रही हैं। भारत में भी पिछले कुछ वर्षों में हालात बदले हैं। राजनीति में महिलाओं की भागादारी बढ़ी हैं। संसद और विधानसभाओं में उनके लिए 33 फीसदी आरक्षण की मांग हो रही है। स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 50 फीसदी आरक्षण पहले से ही लागू किया गया है। नगर निगमों, नगर पालिकाओं और पंचायतों में महिलाओं ने धीरे-धीरे अपनी भूमिका को बढ़ाया है और अच्छा काम कर रही हैं। शिक्षा, चिकित्सा, प्रशासन, पुलिस, सेना, मीडिया, बैंकिंग समेत सभी क्षेत्रों में महिलाओं की भूमिका बढ़ी है। हाल ही हमने देखा भी कि एक आईपीएस अफसर रात में अपने छोटे से बच्चे को लेकर अपनी डयूटी कर रही हैं।
भारत में महिलाओं के लिए तमाम कानून बनाएं गए हैं। यौन उत्पीडऩ से बचाने के लिए भी कानून बनाए गए हैं। कार्यस्थलों पर उनके लिए कई व्यवस्थाएं की गई हैं। सभी कार्यालयों में यौन उत्पीडऩ से बचाने के लिए समितियों का गठन करने की व्यवस्था की गई है। प्रसूति अवकाश के दिन बढ़ाए गए हैं। कार्यरत महिलाओं के स्वास्थ्य लाभ के लिए प्रसूति अवकाश की विशेष व्यवस्था, संविधान के अनुच्छेद 42 के अनुकूल करने के लिए 1961 में प्रसूति प्रसुविधा अधिनियम पारित किया गया। इसके तहत पूर्व में 90 दिनों का प्रसूति अवकाश मिलता था। अब 135 दिनों का अवकाश मिलने लगा है। महिलाओं के लिए कानूनी समानता समेत कई कानून लागू हैं। इसके बावजूद महिलाओं के उत्पीडऩ की घटनाएं बढ़ रही हैं।
अभी हाल में कई जाने-माने लोग यौन उत्पीडऩ का आरोप लगने के बाद जेलों में हैं या कोर्ट में मुकदमा चल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पर यौन उत्पीडऩ के आरोपों को सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (एससीबीए) और सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन (एससीएओआरए) ने फुल बेंच से आरोपों की निष्पक्ष जांच के लिए आवश्यक कदम उठाने का आग्रह किया है। कुछ अन्य संगठनों ने इसे साजिश भी बताया है। एक वकील ने साजिश बताते हुए हलफनाम भी दिया है। उन्होंने सीलबंद लिफाफे में कागजात भी सौंपे हैं। मुख्य न्यायाधीश पर लगे आरोपों को लेकर चिंता जताई गई है, यह एक अच्छी बात है।
सवाल यह है कि महिला लॉ सहायकों के आवासीय कार्यालयों पर काम करने को लेकर न्यायाधीशों का जो डर है, उससे महिलाओं के सामने नौकरी का संकट खड़ा होगा। अनुबंध प्रथा के कारण लोगों के सामने नौकरी का संकट हमेशा बना रहता है। यह भी देखने में आया कि प्रसूति अवकाश की अवधि बढऩे पर संस्थानों में महिलाओं को नौकरी देने में अड़चने आने लगी। यह खबरें आ रही है कि महिलाओं के गर्भवती होने पर नौकरी से निकाल दिया जाता है। इन सब चिंताओं के बीच सबसे बड़ा सवाल यह है कि यौन उत्पीडऩ के आरोप लगने पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर सभी संस्थानों में विशाखा समितियों का गठन किया जाता है। कार्यस्थल पर होने वाले यौन-उत्पीडऩ के खिलाफ साल 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने कुछ निर्देश जारी किए थे। विशाखा
और अन्य बनाम राजस्थान सरकार और भारत सरकार मामले के अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यौन-उत्पीडऩ, संविधान में निहित मौलिक अधिकारों (अनुच्छेद 14, 15 और 21) का उल्लंघन हैं। इसके साथ ही इसके कुछ मामले स्वतंत्रता के अधिकार (19)(1)(द्द) के उल्लंघन के तहत भी आते हैं।
पिछले कुछ समय में हमने देखा है कि कई महिलाओं ने यौन उत्पीडऩ के आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई न होने पर आत्महत्या कर ली। थानों में यौन उत्पीडऩ की रिपोर्ट दर्ज न होने पर जहर खाने की खबरें भी मीडिया में आई हैं। हमने यह भी देखा कि यौन उत्पीडऩ के आरोप लगने के बाद कई पुरुषों ने भी खुदकुशी कर ली। यानी कानून होने के बावजूद न्याय नहीं मिल रहा है। कानून की आड़ में महिलाएं भी अपने सहयोगियों को सताती हैं। कानून में यह व्यवस्था है कि अगर महिला आरोप लगाती है कि उसका उत्पीडऩ हुआ है तो आरोपी को अपने बचाव में सुबूत देने पड़ते हैं। ऐसे आरोपों के कारण कई परिवार बर्बाद भी हुए हैं। यौन उत्पीडऩ के आरोपों से बरी होने के बावजूद आरोप लगाने वाली महिलाओं के खिलाफ भी कोई कार्रवाई नहीं होती है। अब समय आ गया है कि सुप्रीम कोर्ट यह व्यवस्था दे कि आरोप लगने के जांच हो और सच्चाई सामने आए। कानून का बेजा इस्तेमाल न हो पर दोषी भी न बचें। ऐसी व्यवस्था की जरूरत है।