मायावती को रास नहीं आया गठबंधन साथ, जानिए ये है वजह

मायावती का मूल मंत्र एकला चलो की हमेशा से रही है. परिस्थतियों ने भले ही उन्हें गठबंधन करने को विवश किया हो पर यह पॉलिटिक्स उन्हें अधिक दिनों तक रास नहीं आई.

सपा के साथ 1993 में किया गया गठबंधन हो या कांग्रेस पार्टी के साथ 1996 में या फिर लोकसभा चुनाव 2019 में सपा से. गठबंधन के रिश्तों की डोर बीच में ही टूट रही है. यही वजह है कि मायावती अपने शर्तों पर पॉलिटिक्स के लिए जानी जाती हैं. उनका यही अंदाज उन्हें अन्य नेताओं से कहीं अलग पहचान दिलता रहा है.

बनता  टूटता रहा गठबंधन
उत्तर प्रदेश की पॉलिटिक्स में मायावती का पर्दापण सपा के गठबंधन के साथ 1993 में हुआ. बीएसपी निर्माणकर्ता कांशीराम  सपा निर्माणकर्ता मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेशकी पॉलिटिक्स में नब्बे की दसक में ऐसा गठबंधन बनाया कि अन्य दलों के पसीने छूट गए. पिछड़ों  एससी-एसटी वोटबैंक को केंद्रित इस गठबंधन ने उत्तर प्रदेश की पॉलिटिक्स में हलचल मचा दिया. सपा-बसपा का यह गठबंधन सत्ता में आया तो जरूर, लेकिन दो वर्ष बाद ही 1995 में स्टेट गेस्ट हाउस काण्ड के बाद यह गठबंधन टूट गया. यह वह दौर था जब उत्तर प्रदेश में गठबंधन की पॉलिटिक्स प्रारम्भ हुई थी. मायावती ने सपा से नाता तोड़ने के बाद बीजेपी से योगदान से सीएम तो बनी जरूर, लेकिन यह रिश्ता भी अधिक दिनों तक नहीं चल सका. बीएसपी 1996 के कांग्रेस पार्टी के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ी, लेकिन इस संबंध ने भी बीच में ही दम तोड़ दिया.

वोट ट्रांस्फर न होने का जताती रही खतरा
मायावती ने हमेशा अपनी शर्तों पर गठबंधन किया है. वह हमेशा कहती रही हैं कि उनकी पार्टी को अन्य दलों का वोट ट्रांस्फर नहीं होता है. 1996 में गठबंधन के आधार पर चुनाव लड़ने पर अपेक्षित सफलता न मिलने पर भी यह आरोप लगाया था कि कांग्रेस पार्टी का वोट बीएसपी को ट्रांसफर नहीं हुआ. लोकसभा चुनाव 2019 में सपा से गठबंधन के बाद अपेक्षित सफलता न मिलने के बाद से इस रिश्तों को लेकर कायसबाजी प्रारम्भ हो गई थी. अंतत: मायावती ने दिल्ली में हुई मीटिंग में यह बात कह कर साफ कर दिया कि उन्हें यादवों का पूरी तरह से वोट नहीं मिला.

वोट बैंक सहेजने पर पूरा ध्यान
लोकसभा चुनाव 2019 में बीएसपी उत्तर प्रदेश में शून्य से 10 सीट पर पहुंचने वाली बीजेपी के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है. इसके बाद भी उनका यह बोलना कि गठबंधन का पूरा लाभ उन्हें नहीं मिला  उनका वोट बैंक ट्रांसफर हुआ. इसका मतलब साफ है कि वह एससी-एसटी वोट बैंक को सहेज कर रखने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती हैं. यही वजह है कि मायावती को गठबंधन की पॉलिटिक्स कभी रास नहीं आई.