सरकार करने जा रही इन बैंकों का निजीकरण, वजह जानकर चौक उठे लोग

1969 में इंदिरा गांधी की सरकार ने 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था. आरोप था कि यह बैंक देश के सभी हिस्सों को आगे बढ़ाने की अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं और सिर्फ़ अपने मालिक सेठों के हाथ की कठपुतलियां बने हुए हैं. इस फ़ैसले को ही बैंक राष्ट्रीयकरण की शुरुआत माना जाता है.

हालांकि इससे पहले 1955 में सरकार स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को अपने हाथ में ले चुकी थी. और इसके बाद 1980 में मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार ने छह और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया. लेकिन बैंक राष्ट्रीयकरण के 52 साल बाद अब सरकार इस चक्र को उल्टी दिशा में घुमा रही है.

दरअसल, 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद से ही यह बात बार-बार कही जाती रही है कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल में ही यह बात ज़ोर देकर दोहराई है.]

इससे पहले आईडीबीआई बैंक को बेचने का काम चल रहा है और जीवन बीमा निगम में हिस्सेदारी बेचने का एलान तो पिछले साल के बजट में ही हो चुका था. सरकार ने अभी तक यह नहीं बताया है कि वो कौन से बैंकों में अपनी पूरी हिस्सेदारी या कुछ हिस्सा बेचने वाली है.

लेकिन ऐसी चर्चा ज़ोरों पर है कि सरकार चार बैंक बेचने की तैयारी कर रही है. इनमें बैंक ऑफ महाराष्ट्र, बैंक ऑफ इंडिया, इंडियन ओवरसीज़ बैंक और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के नाम लिए जा रहे हैं.

इन नामों की औपचारिक पुष्टि नहीं हुई है. लेकिन इन चार बैंकों के लगभग एक लाख तीस हज़ार कर्मचारियों के साथ ही दूसरे सरकारी बैंकों में भी इस चर्चा से खलबली मची हुई है.

देश के सबसे बड़े बैंक कर्मचारी संगठन यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियंस ने हड़ताल का आह्वान किया है. फोरम में भारत के बैंक कर्मचारियों और अफसरों के नौ संगठन शामिल हैं.

हड़ताल की सबसे बड़ी वजह सरकार का एलान है कि वो आईडीबीआई बैंक के अलावा दो और सरकारी बैंकों का निजीकरण करने जा रही है. बैंक यूनियनें निजीकरण का विरोध कर रही हैं. उनका कहना है कि जब सरकारी बैंकों को मज़बूत करके अर्थव्यवस्था में तेज़ी लाने की ज़िम्मेदारी सौंपने की ज़रूरत है उस वक़्त सरकार एकदम उलटे रास्ते पर चल रही है.

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट में एलान किया है कि इसी साल दो सरकारी बैंकों और एक जनरल इंश्योरेंस कंपनी का निजीकरण किया जाएगा.