सरकार ने किया ये बड़ा एलान, लोग हो जाए तैयार, दिया ये पैग़ाम

आपदा प्रबन्धन क़ानून के तहत जारी इसी आदेश में मकान मालिकों को हिदायत दी गयी थी कि वो किसी पर किराये के लिए दबाव नहीं डालेंगे, अन्यथा ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई होगी।

 

इस आदेश को 18 मई को अचानक वापस ले लिया गया। सरकार को लोगों की मदद के लिए आगे आना चाहिए था, लेकिन वह गाल ही बजाती रह गई।

केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने 29 मार्च को आदेश जारी किया था कि सभी उद्योगों, दुकानों और व्यवसायिक संस्थाओं को अपने कर्मचारियों को लॉकडाउन की अवधि का पूरा वेतन नियत वक़्त पर ही देना होगा।

इसी तरह, भारतीय रिज़र्व बैंक ने 27 मार्च को सभी बैंकों से कर्ज़ की किस्तों की वसूली में तीन महीने की ढील देने को था। इस घोषणा को लेकर अफ़वाह फैलायी गयी कि ‘तीन महीने की किश्त माफ़ ।

सुप्रीम कोर्ट ने रिज़र्व बैंक से जवाब-तलब किया तो सरकार की ओर से सफ़ाई दी गयी कि वो तीन महीने की किश्त माफ़ करने की दशा में नहीं है, क्योंकि इससे बैंकों को 2 लाख करोड़ रुपये का नुकसान होगा।

सरकार इसकी भरपाई करने की हालात में नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अभी कोई आदेश नहीं दिया है। लेकिन सरकार और आरबीआई के रवैये से इतना तो साफ़ दिख रहा है कि देश के विशाल मध्यम वर्ग की उम्मीदों पर पानी फिर चुका है। इसी मध्यम वर्ग पर नौकरियों में हुई छंटनी, बेरोज़गारी और आमदनी के गिरने की न सिर्फ़ तगड़ी मार पड़ी है।

इसी तरह प्रवासी मज़दूरों की घर-वापसी को लेकर भी सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएँ दाख़िल हुईं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सरकारें 15 दिनों में इच्छुक प्रवासियों को उनके घर भेजें।

प्रवासियों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। इसके बावजूद सरकार अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शनपर ित्रा रही है। ट्रेन में भूखे-प्यारे ज़िन्दगी और मौत से जंग करने की उपलब्धि भी इसी दौर की है। ये उपलब्धि ‘अच्छे दिन’ की बदौलत पैदा हुई ‘आत्म निर्भरता’ की वजह से ही मुमकिन हुई है।

जल्द ही लोगों के समझ में आ गया कि वो ठगे गये हैं, क्योंकि असलियत माफ़ी की नहीं, बल्कि इसे नहीं भरने वालों को तीन महीने तक ‘डिफाल्टर’ करार नहीं देने की थी। इसके बाद जब सरकार ने लघु, छोटे और मझोले उद्योगों के लिए और उदार एलान किये तो सारा मसला घूमते-फिरते सुप्रीम कोर्ट जा पहुँचा।

जब सारा मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा गया तो वहाँ सरकार ने सफ़ाई दी कि ‘वेतन, कम्पनी और कर्मचारी का आपसी मामला है। हम इसमें दख़ल नहीं दे सकते।

अब सोचने की बात ये है कि क्या ‘आपसी मामला’ वाली परिभाषा की समझ सरकार को 29 मार्च को नहीं थी? सरकार को तब ये समझ में क्यों नहीं आया कि कम्पनियां आमदनी के बग़ैर कैसे वेतन देंगी ? अब सरकार की अनीतियों के चलते लाखों लोगों की नौकरी बिना वेतन के छूट गई।

कोरोना त्रासदी को लेकर मोदी सरकार की घोषणाएं जुमला ही साबित हुई हैं। सुप्रीम कोर्ट में ऐसे वादों की पोल खुल चुकी है। लॉकडाउन के दौरान कर्मचारियों को पूरा वेतन देने, ईएमआई के भुगतान में तीन महीने की राहत देने, और प्रवासियों को उनके घर भेजने के वादे पर सरकार घिर चुकी है।

अब सरकार पूरे देश को आत्मनिर्भरता का पैग़ाम देकर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो चुकी है। 133 करोड़ लोग अपनी व्यवस्था स्वयं करें।