जब लोकतंत्र अपना काम पूरी मुस्तदी से नहीं कर पाता और लोगों की भावनाओं पर खरा नहीं उतर पाता तो जनता में लोकतांत्रिक संस्थाओं के खिलाफ गुस्सा भरने लगता है. इस गुस्से में लोग इन संस्थानों को खत्म करने की बात करने लगते हैं. जबकि जरूरत इन संस्थाओं को और मजबूत करने की होती है, ताकि लोकतंत्र बेहतर हो सके. दुनिया में लोकतंत्र की चुनौतियों को लेकर मशहूर किताब हाउ डेमोक्रेसीज डाय (लोकतंत्र कैसे मरते हैं) में यह बात कही गई है.
आज जब हैदराबाद में बलात्कार और हत्या के चार आरोपियों की पुलिस एनकाउंटर में मौत पर देश में जश्न का माहौल बन रहा है तो इस किताब में दी गई चेतावनी बहुत करीब नजर आ रही है. जाहिर है कि एक महिला से सामूहिक बलात्कार और उसके बाद उसे जिंदा जला देने की घटना नृशंषतम की श्रेणी में आती है. ऐसे जघन्य कृत्य पर लोगों के मन में गुस्सा आना बहुत स्वाभाविक है. और यह गुस्सा तब और ज्यादा बढ़ जाता है जब वे देख रहे हैं कि देश में बलात्कार के मामलों पर उस तरह से सख्त और तेज न्याय नहीं हो रहा है जिसका वादा किया गया था.
लोगों के दिमाग में उन्नाव की घटना भी…
लोगों के दिमाग में उन्नाव की घटना भी चल रही होगी, जहां बलात्कार के आरोपी को सजा दिलाने में जुटी एक लड़की के परिवार का उत्पीड़न होता है और एक-एक कर उसके परिवार के सदस्यों की हत्या होती जाती है. उसके बावजूद आरोपी पर न तो कोई नैतिक कार्रवाई होती है और कानूनी कार्रवाई तो धीमी चलती ही है. लोगों में शाहजहांपुर बलात्कार मामले पर भी गुस्सा है, जहां एक रेप पीड़िता को लंबे समय तक बलात्कार के आरोपी से रंगदारी वसूलने के आरोप में जेल में रहना पड़ा. कानूनी बारीकियां जो भी हों, लेकिन आम आदमी को यही लगता है कि एक लड़की हद से हद किसी को ब्लैकमेल कर सकती है, लेकिन एक ताकतवर पूर्व मंत्री से रंगदारी कैसे मांग सकती है. निर्भया कांड के बलात्कारियों को अब तक फांसी न हो पाना भी इस गुस्से में शामिल हो ही गया होगा.
यानी लोगों के सामने समस्या यह थी कि देश में लड़कियां सुरक्षित नहीं हैं और उन्हें न्याय मिलना चाहिए. ऐसे में हैदराबाद की घटना सामने आ गई. लोगों का सामूहिक गुस्सा इस घटना के जरिये जाहिर हो गया. संसद में सांसद जया बच्चन ने यहां तक कहा कि बलात्कार के आरोपियों को भीड़ के हवाले कर देना चाहिए. मीडिया प्लेटफॉर्म पर भी इस तरह का आक्रोश उपजा और एंकर बहुत ही भावुक होकर न्याय की मांग करने लगे. यह न्याय की मांग कुछ इस तरह से की गई कि न्याय से ज्यादा बदले की मांग लगने लगी.
इस पूरी प्रक्रिया में भीड़ में गुस्सा बढ़ा और लोग आरोपियों को चौराहे पर लटकाने या किसी न किसी रूप में उन्हें तुरंत मार देने की मांग करने लगे. इस मांग से राज्य सरकार और वहां की पुलिस भी कैसे बच सकती थी! ऐसे में होना यह चाहिए था कि देशभर में महिला सुरक्षा, पुलिस व्यवस्था और अदालत के तौर-तरीकों में सुधार किया जाता. उन सारी संस्थाओं को मजबूत किया जाता जिनकी कमजोरी से इस तरह की घटनाएं हो पाती हैं और घटनाएं घटित होने के बाद सजा होने में खासी देरी लगती है.
कानून की हत्या में ही न्याय दिखाई देने लगा
लेकिन हुआ ठीक उलटा. लोगों ने कानून व्यवस्था और उसे बचाने वाली संस्थाओं को मजबूत करने की बात नहीं की, उनके मन में आया कि कानून और न्याय को ताक पर रखकर इन्हें मध्ययुग की तरह सीधे मार दिया जाए. इस तरह से लोगों को कानून की हत्या में ही न्याय दिखाई देने लगा. भीड़ जब उन्मादी होती है, तो इस तरह की परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं. लोग यह भूल जाते हैं कि दो गलत बातों से एक सही बात पैदा नहीं हो सकती. अपराधी के अपराध और उससे बदला लेने में होने वाले दूसरे अपराध से कानून कमजोर होता है. और जब कानून कमजोर होता है, तो अंतत: उन्हीं लोगों को सबसे ज्यादा परेशानी होती है जो उसे कमजोर करने के लिए आसमान सिर पर उठाए थे.
हैदराबाद पुलिस ने जिस तरह एनकाउंटर किया है, वह संदेह के घेरे में रहेगा ही. जाहिर है इसकी कम से कम मजिस्ट्रेट जांच होगी. वैसे भी जिस पुलिस अफसर के नेतृत्व में यह काम हुआ है वह 11 साल पहले भी एक लड़की पर एसिड अटैक करने वाले तीन आरोपियों का इसी तरह एनकाउंटर कर चुके हैं. एनकाउंटर से आगे की बात यह है कि लोगों का हुजूम घटनास्थल पर उमड़ पड़ा और पुलिसवालों को कंधे पर उठाए है. उन पर पुष्प वर्षा की जा रही है. देश में कानून बनाने वाले यानी हमारे सांसद लोग इस एनकाउंटर की तारीफ कर रहे हैं. अभी जनभावनाओं के दबाव में कोई इस पर सवाल उठाने से बच रहा है.