मुजफ्फरनगर में समाजवादी पार्टी ने नहीं उतारे एक भी मुस्लिम उम्मीदवार, जाने होगा फायदा होगा या नुकसान?

सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील मुजफ्फरनगर की राजनीति की छाप पूरे उत्तर प्रदेश पर दिखाई पड़ती है। मुजफ्फरनगर में हुए दंगों के बाद हुए तीन चुनावों में तो ऐसा ही हुआ है। किसान आंदोलन के बाद जाट और मुसलमानों को एक बार फिर एकजुट करके गन्ना बेल्ट में जीत की मिठास चखने की आस लगाए समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के लिए नई चुनौती खड़ी हो गई है।

गठबंधन की ओर से मुजफ्फरनगर में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं उतारे जाने से अल्पसंख्यक समुदाय में असंतोष की भावना उपज रही है।

करीब 38 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं वाले मुजफ्फरनगर जिले में विधानसभा की छह सीटें हैं। इनमें से एक भी सीट पर गठबंधन ने मुस्लिम प्रत्याशी नहीं उतारा है। सपा और रालोद ने 5 साटों पर हिंदू उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया है। माना जा रहा है कि एकमात्र बचे मुजफ्फरनगर सीट पर भी हिंदू उम्मीदवार को ही उतारा जाएगा। माना जा रहा है कि गठबंधन ने ध्रुवीकरण से बचने की कोशिश के तहत ऐसा किया है। हालांकि, उसके इस दांव ने अल्पसंख्यक समुदाय को कुछ हद तक नाराज और निराश कर दिया है।

मुस्लिम समुदाय के लोगों का कहना है कि पिछले दो सालों से रालोद के नेता जाट और मुस्लिम समुदाय में भाईचारे की बात कर रहे हैं, किसान आंदोलन के दौरान भी एकता की अपील की गई, लेकिन इसके बावजूद उम्मीदवारों के चयन के समय मुसलमानों को नजरअंदाज किया गया।

मुजफ्फरनगर के प्रमुख मुस्लिम नेता कादिर राणा, मुरसालीन राणा, लियाकत अली जैसे कई नेता जो चुनाव लड़ना चाहते थे वे अब निराश हैं। समाजवादी पार्टी के पूर्व नेता और पूर्व सांसद अमीर आलम ने कहा, ”मुद्दा यह नहीं है कि मुस्लिम उम्मीदवार दिया गया या नहीं, मुद्दा यह है कि सांप्रदायिक ताकतों को कैसे हराया जाए।” स्थानीय नेता फैजल सैफई ने कहा, ”मुस्लिम नेताओं को टिकट नहीं दने से समाजवादी पार्टी को भारी नुकसान होगा। एआईएमआईएम और बीएसपी के मुस्लिम उम्मीदवारों को फायदा हो सकता है।”