यहां सालों से चल रहा लॉकडाउन, भुगत रहे गलती की सजा

भारत के विभाजन के समय रेडक्लिफ आयोग को सीमा तय करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, लेकिन इस आयोग का प्रमुख रेडक्लिफ पहले न तो कभी भारत आया था, न ही उसे यहां के बारे में कुछ पता था।

 

देश में उसने जिस बे-ढंगें तरीके से सीमाओं का बंटवारा किया उसका खामियाजा आज तक लोगों को उठाना पड़ रहा है। सबसे ज्यादा तो पश्चिम बंगाल और तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) की इंटरनेशनल सीमा पर तो सैकड़ों गांव ऐसे हैं जिनका आधा हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान में चला गया और बाकी आधा भारत में रह गया।

बंटवारे में भारत से लगी बांग्लादेश की सीमा पर कंटीले तारों की बाड़ लगाए जाने के बाद लगभग 10 जिलों में लगभग 250 गांवों के 70 हजार लोग बाड़ के दूसरी ओर ही रह गए।

वहीं बाड़ में लगे गेट भी उनके लिए नियमित रूप से किसी निश्चित समय के लिए ही खुलते हैं। ऐसे में बीते 7 दशकों से हजारों लोग लॉकडाउन जैसी हालत में जिंदगी व्यतीत कर रहे हैं।

ऐसे में नियमों के अनुसार, ‘नो मैस लैंड’ में कोई आबादी नहीं होनी चाहिए, लेकिन इलाके के लोग रेडक्लिफ आयोग की गलती की सजा भुगतने को मजबूर हैं।

इस सीमा पर ‘नो मैस लैंड’ में सैकड़ों घर बसे हैं। और तो और रहन-सहन, बोली और संस्कृति में काफी हद तक समान होने से यह पता लगाना मुश्किल है कि कौन भारतीय है और कौन बांग्लादेशी।

25 मार्च से देशभर अभी तक लगभग 54 दिनों से लॉकडाउन है। इन 54 दिनों में देश के आम लोगों को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है.

देश का मजदूर वर्ग खून के घूंट पीकर जी रहा है। ऐसे में भारत-बांग्लादेश सीमा पर कई गांव ऐसे हैं जो दशकों से लॉकडाउन जैसी स्थिति में ही रहते आए हैं और इसी माहौल में खुद को ढाल लिया है।

बात ये है कि भारत और बांग्लादेश की सीमा पर ये गांव ‘नो मैस लैंड’ पर हैं, इंटरनेशनल बॉर्डर पर लगी कांटेदार तारों की बाड़ के दूसरी ओर।

यहां के लोग पहले तय समय पर ही बाड़ में बने गेट के रास्ते आवाजाही कर सकते थे, लेकिन अब कोरोना से उनके बाहर निकलने पर पाबंदी है।

सिर्फ आपातकाल की स्थिति में ही सीमा सुरक्षा बल के लोग उनको बाहर आने की इजाजत देते हैं। ऐसा देश के विभाजन के समय सीमा के बंटवारे के कारण हुआ है।