रानी लक्ष्मीबाई और ऑस्ट्रेलियाई के वकील की देर रात तक हुई मुलाकात का खुलासा…

ये लेख जॉन लैंग की क़िताब ‘वॉन्ड्रिंग्स इन इंडिया एंड अदर स्केचेज़ ऑफ़ लाइफ़ इन हिंदोस्तान’ के एक अध्याय ‘रानी ऑफ़ झांसी’ का अनुवाद है.

जॉन लैंग ऑस्ट्रेलियाई वकील और उपन्यासकार थे. ये अध्याय जॉन लैंग की झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के साथ हुई मुलाक़ातों पर आधारित है.

रानी लक्ष्मीबाई ने साल 1854 में ऑस्ट्रेलिया के वकील जॉन लैंग को नियुक्त किया ताकि वो झांसी के अधिग्रहण के ख़िलाफ़ ईस्ट इंडिया कंपनी के समक्ष याचिका दाखिल करें. उनकी यह किताब 1861 में प्रकाशित हुई थी.

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से झांसी को कंपनी राज में विलय कराने के आदेश जारी किए जाने के एक महीने बाद मुझे रानी की ओर से एक खत मिला. फ़ारसी में ये ख़त स्वर्ण पत्र पर लिखा हुआ था, जिसमें अपने राज का दौरा करने का अनुरोध किया गया था. ये ख़त झांसी राज्य के दो अधिकारी लेकर आए थे, एक तो झांसी के वित्त मंत्री थे और दूसरे अधिकारी रानी के मुख्य वकील थे.

झांसी का राजस्व उस दौर में क़रीब छह लाख रुपये सालाना था. सरकारी ख़र्चे और राजा की सेना पर होने वाले ख़र्चे के बाद करीब ढाई लाख रुपये बच जाते थे. सैनिकों की संख्या बहुत ज़्यादा नहीं थी, सब मिलाकर करीब एक हज़ार सैनिक होंगे इनमें ज़्यादातर सस्ते घुड़सवार सैनिक थे. जब अंग्रेजों ने झांसी को अपने शासन में मिलाने का समझौता किया था तब समझौते के मुताबिक़ रानी को साठ हज़ार रुपये सालाना की पेंशन मिलनी थी, जिसमें हर महीने भुगतान होना था.

क़ानूनी तरीक़े से गोद लिया गया था वारिस लेकिन…

रानी ने मुझे झांसी बुलाया तो इसका उद्देश्य झांसी को अंग्रेज़ी शासन में मिलाने के आदेश के रद्द किए जाने या कहें वापस लिए जाने की संभावना को तलाशना था.

हालांकि मैं गवर्नर जनरल का एजेंट रह चुका था और मुझे भी भारत के दूसरे अधिकारियों के तरह लगता था कि झांसी के कंपनी शासन में विलय का फ़ैसला अनुचित है बल्कि अन्याय जैसा है. इस मामले से जुड़े तथ्य इस तरह से थे- दिवगंत हुए राजा की अपनी इकलौती पत्नी से कोई विवाद नहीं था. राजा ने अपनी मौत से कुछ सप्ताह पहले अपने पूरे होशोहवास में सार्वजनिक तौर पर अपना वारिस गोद लिया था. उन्होंने इसके बारे में ब्रिटिश सरकार को उपयुक्त ज़रिए से सूचना भी दी थी.

ऐसे मामलों में फ़र्जीवाड़े को रोकने के लिए सरकार ने जिस तरह के प्रावधान अपनाए हुए थे, उसका पूरा पालन किया गया था. राजा ने सैकड़ों लोगों और गवर्नर जनरल के प्रतिनिधि की मौजूदगी में बच्चे को गोद लिया था. इस मौके पर उन्होंने पूरी तरह से सत्यापित दस्तावेजों के आधार पर बच्चे को गोद लिए जाने की घोषणा की थी. राजा ब्राह्मण थे और उन्होंने अपने निकट संबंधी के बच्चे को गोद लिया था. वे ब्रिटिश सरकार के विश्वासपात्र राजाओं में थे.

लार्ड विलियम बैंटिक ने राजा के निधन के बाद उनके भाई को एक पत्र भी लिखा था, जिसमें उन्हें राजा कहा गया था और ये भरोसा दिया गया था कि उनके वारिस और गोद लिए वारिस के लिए, उनके राज और उसकी स्वतंत्रता की गारंटी दी गई थी. कथित रूप से कहा जाता है कि लार्ड विलियम बैंटिक के इस समझौते का बाद में उल्लंघन किया गया, जिस पर संदेह करने का कोई कारण भी नहीं है.

पेशवा के समय में झांसी के दिवगंत राजा केवल एक बड़े ज़मींदार थे और वे केवल ज़मींदार भर रहते तो उनकी विरासत का मुद्दा कभी नहीं उभरता और ना ही उनकी अंतिम इच्छा की बात होती. लेकिन राजा के तौर उनको स्वीकार किए जाने के चलते उनकी संपत्ति के कंपनी शासन में विलय की नौबत आई, इसके बदले उन्हें सालाना साठ हज़ार रुपये पेंशन देने की व्यवस्था की गई. ये बात पाठकों को भले जितनी भी विचित्र लग रही हो बावजूद इसके यह सच तो है.

जब मुझे रानी का खत मिला तब मैं आगरा में था. झांसी से आगरा पहुंचने में दो दिन का वक्त लगता था. जब मैं झांसी से चला था, तब मेरी भावनाएं इस महिला के प्रति हो गई थीं. राजा ने जिस बच्चे को गोद लिया था, वह महज़ छह साल का था. उसके बालिग होने तक राजा की वसीयत के मुताबिक़ रानी को बच्चे के अभिभावक होने के साथ साथ राजगद्दी भी संभालनी थी. ऐसे में ख़ुद सैनिक रही किसी महिला के लिए कोई छोटी बात नहीं थी कि वो अपनी स्थिति को छोड़कर सालाना 60 हज़ार रुपये की पेंशनभोगी बन जाएं.

आगरा से झांसी तक का वो सफ़र

बहरहाल, मैं झांसी की रानी के आवास की अपनी यात्रा के बारे में विस्तार से बताता हूं. मैं शाम के समय अपनी पालिकानुमा बग्घी में बैठा था और अगली सुबह, दिन की रोशनी में ग्वालियर पहुंचा था. कैंट से यही कोई डेढ़ मील की दूरी पर झांसी के राजा का छोटा सा घर था, वहीं मुझे ठहरना था. मुझे वहां एक मंत्री और वकील ले गए जो मेरे साथ ही थे. दस बजे के क़रीब नाश्ता करने के बाद मैंने अपने हुक्के से तंबाकू पिया. अब हमें चलना था. दिन काफ़ी गर्म था लेकिन रानी ने मुझे लाने के लिए बड़ी सी आरामदेह बग्घी भेजी थी, जो किसी छोटे कमरे की तरह थी जिसमें हर तरह की सुविधा मौजूद थीं. एक पंखा भी लगा हुआ था जिसे झलने के लिए एक नौकर भी था.

पालकी के अंदर मेरे अलावा मंत्री और वकील तो थे ही, साथ में एक खानसामा भी था जो घुटनों में अपनी अंगीठी फंसाए कभी पानी गर्म करता तो करीब शराब और कभी बीयर. ताकि प्यास लगने पर जो चीज़ मैं मांगू वो तुरंत दिया जा सके. इस बग्घी को असीम ताक़त वाले दो घोड़े तेज रफ़्तार से खींच रहे थे. दोनों घोड़ों जमीं से 17 हाथ की ऊंचाई जितने लंबे थे. राजा ने इन्हें फ्रांस से 15 हज़ार रुपये में मंगाया था.

कई जगहों पर रास्ता भी ख़राब था लेकिन औसतन हम प्रति घंटे नौ मील की दूरी तय कर रहे थे. करीब दो बजे दोपहर में हम झांसी के क्षेत्र में पहुंचे थे. इस दौरान दो बार बग्घी खींचने वाले घोड़ों को बदला जा चुका था और अभी भी हमें नौ मील से ज़्यादा की दूरी तय करनी थी. पहले तो हमारे साथ केवल चार घुड़सवार सैनिक थे लेकिन झांसी की सीमा में पहुंचते ही हमारे आसपास करीब पांच सैनिक हो चुके थे. प्रत्येक घुड़सवार सैनिक के पास भाला दिख रहा था और सब एक जैसे कपड़ों में थे, ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों की तरह. सड़क पर कुछ सौ मीटर की दूरी पर घुड़सवार सैनिक जुड़ते जा रहे थे और जैसे जैसे हम आगे बढ़ रहे थे, वैसे वैसे घुड़सवार सैनिकों की संख्या बढ़ती जा रही थी. ऐसे में जब हम क़िले तक पहुंचे तब तक झांसी की पूरी सेना हमारे साथ आ चुकी थी.

हमारी बग्घी को राजा के बगीचे में ले जा गया, जहां से मैं, वित्त मंत्री और वकील के अलावा दूसरे नौकर भी एक बड़े टेंट में पहुंचे जो आम के विशाल पेड़ों के नीचे बना हुआ था. इसी टेंट में झांसी के दिवंगत राजा ब्रिटिश सरकार के सिविल और सैन्य अधिकारियों से मिला करते थे. यह टेंट शानदार ढंग से बना हुआ था और कम से कम दर्जन भर नौकर मेरी हुकुम की तालीम के लिए मौजूद थे. वैसे मेरी इस यात्रा के दौरान सहयात्री रहे- मंत्री और वकील के बारे में मैं ये ज़रूर कहना चाहूंगा कि वे दोनों अच्छे आदमी थे. समझदार और सलीके वाले होने के साथ साथ सीखने को भी तत्पर. ऐसे में मेरी यात्रा अच्छी रही. रानी ने मुलाकात के समय के बारे में अपने कई ब्राह्मणों (पंडितों) में से एक से सलाह मशविरा किया होगा, ये लोग मुलाकात के समय भी रानी के साथ थे. इन लोगों ने सलाह दी होगी कि मुलाकात के लिए सूर्यास्त के बाद और चंद्रमा के उदय के बीच का वक्त अनुकूल होगा, ऐसे में शाम साढ़े पांच बजे से साढ़े छह बजे का वक्त मुलाकात के लिए तय हुआ था.

‘क्या आप रानी से मिलने के वक़्त अपने जूते उतार देंगे’

इसकी जानकारी मुझे दे दी गई थी और मैं इससे पूरी तरह संतुष्ट भी था. इसके बाद मैंने रात के खाने का ऑर्डर भी दे दिया. इसके बाद वित्त मंत्री ने थोड़ा खेद जताते हुए मुझसे एक संवेदनशील मुद्दे पर बात करने की इच्छा जताई. मेरी अनुमति मिलने के बाद उसने सभी नौकर, यहां तक की मेरे निजी सेवक को टेंट से बाहर निकलकर कुछ दूरी पर खड़े होने को कहा. मैं कर भी क्या सकता था, क्योंकि मैं झांसी के कुछ सैनिकों के बीच में था. वित्त मंत्री ने इसके बाद मुझसे कहा- रानी के कमरे में प्रवेश करने से पहले क्या दरवाजे पर आप अपने जूते उतार सकते हैं? मैंने जानना चाहा कि गवर्नर जनरल के दूतों ने ऐसा किया है. मंत्री ने बताया कि गवर्नर जनरल के दूतों ने कभी रानी से मुलाकात नहीं की है, और दिवंगत राजा ने कभी यूरोपीय मेहमानों को अपने निजी अपार्टमेंट में नहीं बुलाया था, बल्कि वे इसी टेंट में मेहमानों से मिला करते थे, जिसमें हम अभी बात कर रहे हैं.

मैं कुछ मुश्किल में आ गया था, क्या कहूं कुछ समझ में नहीं आ रहा था. इससे पहले मैं दिल्ली के राजा से मिलने को इनक़ार कर चुका था, जो इस बात पर जोर दे रहे थे कि उनकी मौजूदगी में यूरोपीय लोगों को अपने जूते उतार लेने चाहिए. हालांकि वह विचार मुझे भी जंच नहीं रहा था और यह मैंने मंत्री को भी बताया. फिर मैंने उससे पूछा कि क्या वह ब्रिटिश महारानी के महल में लगने वाले दरबार में शामिल हुआ है, मैंने उसे बताया कि दरबार में हर किसी को अपने सिर पर कुछ नहीं पहनना होता है, सिर ढंका हुआ नहीं होना चाहिए और ये हर किसी को मानना पड़ता है. तब मंत्री ने कहा- आप अपना हैट पहन सकते हैं साहिब, रानी इसका बुरा नहीं मानेंगी और, उलटे उन्हें यह अतिरिक्त सम्मान का भाव लगेगा. हालांकि ये वो बात थी, जो मैं नहीं चाहता था. मेरी इच्छा ये था कि वह मेरे हैट पहनने को, जूते उतारने के बदले किए गए समझौते के तौर पर देखें. लेकिन इस समझौते ने मुझे एक अलग तरह की खुशी मिल रही थी लिहाज़ा मैंने सहमति दे दी और वो चाहे जो सोचें, ये उन पर ही छोड़ दिया. लेकिन ऐसा मैंने रानी के पद और उनकी गरिमा के लिए नहीं किया था. बल्कि उनके महिला होने और केवल महिला होने के चलते ही किया था.