पोर्नोग्राफी पर रोक के लिए डेटा प्रोवाइडरों की खातिर ये कानून बनाने की हुई मांग

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, देश में 46 करोड़ लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं जो कुल आबादी का लगभग 26 फीसदी है. यह तादाद वर्ष 2021 तक बढ़ कर 63 करोड़ से ज्यादा पहुंचने का अनुमान है.

केंद्र सरकार ने बीते साल के आखिर में 827 पोर्नोग्राफिक साइटों पर पाबंदी लगाई थी. लेकिन इससे खास अंतर नहीं आया है.युवा पीढ़ी अपने मतलब की चीजों के लिए नई-नई साइटें तलाश रही है, साथ ही जिन साइटों पर पाबंदी लगी थी वह भी नए नाम के साथ आ रही हैं. सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद बीते कुछ वर्षों से यह समस्या लगातार गंभीर होती जा रही है.

 

आनलाइन पोर्नोग्राफी पर रोक के लिए डेटा प्रोवाइडरों की खातिर एक कानून बनाने की मांग उठाई है. उनका कहना है कि भावी पीढ़ी को पोर्न के कुप्रभावों से बचाना जरूरी है.

डी डब्ल्यू हिन्दी पर छपी खबर के अनुसार, सत्यार्थी का कहना है कि पॉर्नोग्राफी के बढ़ते चलन से नई पीढ़ी नैतिक रूप से बर्बाद हो रही है. उनके इस बयान से देश में खासकर युवा तबके में पॉर्नोग्राफी के बढ़ते चलन और उसके दुष्प्रभावों पर फिर से ध्यान जाने की उम्मीद है.

केंद्र सरकार ने उत्तराखंड हाईकोर्ट के निर्देश पर बीते साल अक्तूबर में जब 827 पोर्न साइटों पर पाबंदी लगाई थी, तब भी यह बहस चली थी कि वह यह तय करने का प्रयास कर रही है कि लोग क्या देखें और क्या नहीं.

वैसे, इससे पहले वर्ष 2015 में भी ऐसा ही आदेश जारी करने के बाद सरकार ने यह कहते हुए अपने पांव पीछे खींच लिए थे कि जिन साइटों पर बाल पॉर्नोग्राफी उपलब्ध नहीं है, उसके इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर (आईएसपी) ही पाबंदी का फैसला कर सकते हैं.

विशेषज्ञों का कहना है कि पॉर्नोग्राफी शुरू से ही मानव जीवन का हिस्सा रहा है. लेकिन तकनीक के मौजूदा दौर में इंटरनेट की लगातार बढ़ती पहुंच और सैकड़ों की तादाद में सामने आने वाली पॉर्नोग्राफिक साइटों ने अब समस्या को काफी गंभीर बना दिया है. बाल पॉर्नोग्राफी भी इस समस्या का एक चिंताजनक पहलू है.

इन साइटों के आकर्षण में डूबी युवा पीढ़ी का भविष्य तो बर्बाद हो ही रहा है, इनकी बढ़ती लत के चलते युवा वर्ग में महिलाओं को केवल सेक्स के लिए बनी चीज के तौर पर देखने की सोच विकसित होती है. माना जा सकता है कि बलात्कार और यौन शोषण की बढ़ती घटनाओं से भी इसका लेना देना है.

समाजशास्त्री महेश कुमार चटर्जी कहते हैं, ‘सामान्य पॉर्नोग्राफी और समस्याजनक पॉर्नोग्राफी में अंतर है. सामान्य पॉर्नोग्राफी की मांग हमेशा रहती है और लोग पाबंदी से बचने के वैकल्पिक उपाय तलाश लेते हैं.’ वह कहते हैं कि असली समस्या समस्याजनक पॉर्नोग्राफी की है. इन दोनों को एक चश्मे से देखना उचित नहीं होगा.

चटर्जी कहते हैं, ‘आसानी से उपलब्ध पॉर्न सामग्री युवा पीढ़ी को खतरनाक यौन व्यवहार के लिए प्रेरित कर सकती है. खासकर युवा वर्ग की सबसे ज्यादा आबादी वाले देश में इस बात का खतरा और बढ़ जाता है.’

दिल्ली के फोर्टिस अस्पताल के मानसिक स्वास्थ्य और व्यावहारिक विज्ञान विभाग के निदेशक डॉक्टर समीर पारिख कहते हैं, ‘ज्यादा पॉर्न देखने की आदत वैवाहिक जीवन के लिए भी परेशानी का सबब बन सकता है. इससे पति-पत्नी के आपसी संबधों में खाई बढ़ सकती है. ऐसे कई मामले सामने आ रहे हैं.’

एक सामाजिक कार्यकर्ता अनन्या मंडल कहती हैं, ‘किसी चीज पर पाबंदी लगाने का मतलब लोगों खासकर युवा तबके को उसकी ओर आकर्षित करना है.’ वह कहती हैं कि तकनीक के मौजूदा दौर में किसी भी साइट पर वैकल्पिक तरीके से पहुंचना मुश्किल नहीं है. इसकी बजाय सरकार को पॉर्न के कुप्रभावों के बारे में जागरुकता अभियान चलाना चाहिए. महज पाबंदी लगाने से यह समस्या हल नहीं होगी.