पाकिस्तान और भारत की समर्थक पार्टियाँ PM मोदी में देखना चाहते थे वाजपेयी को

जम्मू-कश्मीर विधानसभा के भंग किए जाने के कुछ दिनों बाद मैं एक सप्ताह के लिए घाटी गया था, जहाँ मैंने तीन बातें महसूस की. कश्मीर में भारत का कोई नेता आज भी लोकप्रिय है तो वो हैं पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी. अलगाववादी आज भी उनका नाम इज़्ज़त से लेते हैं, पाकिस्तान और भारत की समर्थक पार्टियाँ भी.

लोग उन्हें एक दूरदर्शी नेता के रूप में देखते हैं. आज भी लोग उनके उस बयान को याद करते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि कश्मीर की समस्या को मानवता के दायरे में हल करना चाहिए.

पूर्व प्रधानमंत्री अलट बिहारी वाजपेयी की तारीफ़ मीरवाइज़ उमर फ़ारूक़ ने भी की और महबूबा मुफ़्ती ने भी. सड़कों पर मिले आम युवाओं ने भी उनके कश्मीर के मसले को हल करने की कोशिशों को याद किया और दुकानदारों और व्यापारियों ने भी.

आम तौर पर कश्मीर के लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की छवि देखना चाहते थे, लेकिन वो निराश हुए.

श्रीनगर का ट्रैफ़िक जाम पत्थर बाज़ी से बड़ी समस्या

साल 1989 से चरमपंथी हमलों, पत्थरबाज़ी और लगातार हिंसा के साये में आबाद जम्मू-कश्मीर की राजधानी श्रीनगर भारत के दूसरे बड़े शहरों की तरह फ़ैलता जा रहा है, प्रगति कर रहा है.

शहर के ऐतिहासिक जामा मस्जिद के आसपास लगभग हर जुमे की नमाज़ के बाद पत्थरबाज़ी होती है. लेकिन हिंसा केवल पुराने शहर तक सीमित रहती है.

ट्रैफ़िक जाम पूरे शहर में है और इससे रोज़ नागरिकों को जूझना पड़ता है.

इमारतों और दुकानों के निर्माण के कारण शहर की हवा में धूल-ग़र्द बहुत है. अधिकतर तरक़्क़ी अनियोजित है, जिसके कारण ट्रैफ़िक जाम रोज़ की समस्या बन गया है.

शहर की आबादी 13 लाख के क़रीब बताई जाती है, लेकिन स्थानीय लोग कहते हैं कि यहाँ 18-20 लाख लोग आबाद हैं.

पिछले हफ्ते मैंने श्रीनगर के ट्रैफ़िक जाम को रोज़ झेला. सर्दी में परंपरा के अनुसार राज्य की राजधानी जम्मू शिफ्ट हो जाती है. सरकारी अमला भी जम्मू शिफ़्ट हो जाता है.

इसके बावजूद श्रीनगर की सड़कों पर घंटों ट्रैफ़िक जाम देखने को मिला. भारत के दूसरे बड़े शहरों की तरह यहाँ कई फ्लाईओवर बने हैं, जिनमें से कुछ अधूरे हैं जिनके कारण भी ट्रैफ़िक जाम होते हैं.

शहर के नागरिक इससे दुःखी ज़रूर हैं लेकिन उन्हें इस बात पर गर्व है कि झेलम नदी के किनारे आबाद झील और पहाड़ों वाला उनका शहर अब भी पर्यटकों के बीच लोकप्रिय बना हुआ है.

निर्वाचित सरकार से फ़र्क़ पड़ता है या नहीं?

हमारी यात्रा से पहले हमें कुछ कश्मीरी विशेषज्ञों ने बताया कि कश्मीर के लोगों को इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि राज्य में निर्वाचित सरकार है या नहीं. उन्हें इस बात का यक़ीन है कि राज्य के शासन का लगाम केंद्रीय सरकार के हाथों में होता है.

यहाँ आने के बाद हमारी मुलाक़ात अलगाववादी नेता मीरवाइज़ उमर फ़ारूक़ से हुई. उन्हों ने कहा, “यहाँ सरकार हो या ना हो इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. यहाँ सिक्का केंद्र का चलता है.” हमें लगा कि वो घाटी के आम नागरिकों की राय की तर्जुमानी कर रहे हैं.

लेकिन ये केवल अर्धसत्य साबित हुआ. अगले कुछ दिनों में मैंने कई दुकानदारों, शिक्षकों, छात्रों और युवाओं से बात की. ये संख्या इतनी बड़ी नहीं थी कि इससे कोई ठोस नतीजा निकला जाए लेकिन ये इस बात का संकेत ज़रूर था कि जनता की राय एक नहीं है.

हमें कई लोगों ने, ख़ास तौर से युवाओं ने कहा कि सरकार के होने से उनके जीवन में फ़र्क़ पड़ता है. एक दुकानदार ने कहा, “अगर आपको बिजली-पानी इत्यादि की समस्या हो तो आप अपने लोकल विधायक के पास जा सकते हैं. एक आम आदमी के लिए राज्यपाल तक पहुंचना मुश्किल है.”

हिजाब में लिपटी एक छात्रा ने कहा कि विधानसभा को भंग करना जनतंत्र का गला घोटने के बराबर है. “जनतंत्र में निर्वाचित सरकार का होना ज़रूरी है. अगर दिल्ली कश्मीर में जनतंत्र चाहती है तो उसे निर्वाचित विधानसभा को भंग करना नहीं चाहिए था.”

उनके अनुसार राज्यपाल की जवाबदेही कश्मीर के लोगों के प्रति नहीं है. इसलिए वो अपनी मनमानी करें तो कोई उनसे सवाल नहीं कर सकता.

लेकिन हमें कई ऐसे लोग मिले, जिन्होंने कहा कि सरकार के बनने और गिरने से उन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता. एक लड़की ने कहा, “वो सरकार खुद ही बना लेते हैं. हम तो उन्हें वोट भी नहीं देते.”

एक अन्य छात्रा ने कहा कि सरकार किसी भी पार्टी की हो या गवर्नर साहेब शासन कर रहे हों, उनकी ज़िन्दगी में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता क्यूंकि सरकार “उनके लिए कभी कुछ करती ही नहीं.”

हुर्रियत कांफ्रेंस और पाकिस्तान का महत्त्व

केंद्र में मौजूदा सरकार की कोशिशों के बावजूद घाटी में हुर्रियत कांफ्रेंस का महत्व कम नहीं हुआ है. इसकी लोकप्रियता में ज़रूर कमी आई है लेकिन ऐसा महसूस होता है कि कश्मीर के मसले को सुलझाने की कोशिश में इसको शामिल करना ज़रूरी है. इस बात को वो नेता भी स्वीकार करते हैं जो हुर्रियत के प्रतिद्वंदी माने जाते हैं.

दूसरी तरफ़ पाकिस्तान से बातचीत करने के लिए पहल करने की आवाज़ भी सुनाई दे रही थी. यहाँ कश्मीर के मसले को सुलझाने के लिए सब इस बात पर सहमत हैं कि पाकिस्तान और हुर्रियत से बातचीत शुरू करना ज़रूरी है.

नेशनल कांफ्रेंस के उमर अब्दुल्लाह से लेकर पीडीप की नेता महबूबा मुफ़्ती तक, सभी केंद्र सरकार से ये अपील करते हैं कि कश्मीर के बिगड़ते हालात पर काबू पाने के लिए पाकिस्तान और हुर्रियत से बातचीत करनी चाहिए.

हुर्रियत के नेता मीरवाइज़ उमर फ़ारूक़ ने मुझसे कहा कि वो बातचीत के लिए तैयार हैं. शायद सरकार को आपत्ति इस बात पर हो सकती है कि हुर्रियत संविधान के दायरे के बाहर बात करना चाहती है. मगर महबूबा मुफ़्ती का कहना था कि दोनों पक्ष किसी शर्त के बग़ैर फ़ौरन बात चीत शुरू करें.

भारत सरकार ने हुर्रियत से आखिरी बार बातचीत 2006 में की थी, जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे. इससे पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में दो राउंड की बात चीत हुई थी.

पाकिस्तान से भी बातचीत उसी ज़माने में हुई थी. नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री बने तो वो लाहौर गए लेकिन पठानकोट वाले चरमपंथी हमले के बाद आपसी रिश्ते ख़राब हो गए.

भारत का कहना है बातचीत उसी समय होगी जब पाकिस्तान कश्मीर में युवाओं को उकसाने और भड़काने का काम बंद करे. पाकिस्तान इस इलज़ाम को ग़लत बताता रहा है.

मीरवाइज़ ने मुझसे जोशीले अंदाज़ में कहा कि केंद्र बातचीत से पहले आत्मविश्वास निर्माण उपाय (कॉन्फ़िडेंस बिल्डिंग मेज़र्स ) करे, जैसे कि उन्हें सियासी जलसे-जलूस इत्यादि करने की इजाज़त दे. उन्होंने कहा, “अगर केंद्र एक क़दम बढ़ाएगा तो हुर्रियत दो क़दम आगे बढ़ेगा.”