रामायण काल का दंडकारण्य. जितना दुरूह उतना ही अबूझ. शायद तभी यहां के जंगल को अबूझमाड़ के नाम से जाना गया. यहां जंगलके बीच बसे हैं सैकडों आदिवासी गांव. ऐसा ही एक गांव है पलोड़ी. यहां आजादी का जश्न तो आदिवासियों ने भी मनाया था, लेकिन ढिबरी युग से बाहर की चकाचौंध कभी नहीं देखी. आजादी के 73 सालगुजरने के बाद अब इनके घरों में बिजली की लाइट से बल्ब जगमगाए तो उत्साह को परवान चढ़ना ही था. ग्रामीण कहते हैं कि आजादी का उजाला तो उन्होंने अब देखा है
सुकमा जिले के किस्टाराम थाना क्षेत्र भीतर आने वाला ग्राम पलोड़ी बरसों से लाल आतंक की त्रासदी झेल रहा है. यहां पानी, सड़क जैसी बुनियादी सुविधाएं नदारद हैं. यहां के ग्रामीण अपने जिला मुख्यालय भी तब जा पाते हैं जब वह 130 से 150 किमी का सफर आंध्रप्रदेश, तेलंगाना की सीमा लांघ करते हैं. यही वजह है, कि नक्सलियों के खौफ से सालों तक इस क्षेत्र को विकास की मूलधारा से नहीं जोड़ा जा सका है. इसके चलते आज भी अपनी छोटीछोटी जरूरतों का पूरा करने के लिए यहां के आदिवासी आंध्र व तेलंगाना पर निर्भर हैं. इन्हें मूलधारा में वापस लाने व बिजली पहुंचाने की योजना पर भी तब साकार हो सकी, जबकि जवानों ने खून-पसीना बहाया.
अधिकारियों ने बताया कि बॉर्डर पर बसे छत्तीसगढ़ के पलोड़ी समेत आसपास के गांवों में लगभग 20 से 25 किमी बिजली लाइन बिछाई गई. कोबरा बटालियन,डीआरजी वसीआरपीएफ के सैकड़ों जवानों की निगहबानी में लगभग दो से तीन महीने तक चले ऑपरेशन के बाद मई महीने में अंतत: गांव कि बिजली पहुंच गई.
पलोड़ी सहित आसपास के लगभग आठ से दस गांव में बिजली लाइन का विस्तार किया गया है. छत्तीसगढ़ से कटे होने के कारण तेलंगाना से बिजली ली जा रही है. दुर्गम इलाकों में जवान पैठबनाकर नक्सलियों को खदेड़ने में जुटे हैं.
बस्तर संभाग के कई इलाके पहुंचविहीन व नक्सल प्रभावित होने की वजह से लाइनों का विस्तार करना बहुत ज्यादा कठिन है, लेकिन सुरक्षा बलों के योगदान से उन इलाकों में भी बिजली का विस्तार किया जा रहा है. ताकि आदिवासियों को बिजली सेवा से जोड़कर विकास की मूलधारा से जोड़ा जा सके.