थोड़ी मजबूती मिली, लेकिन राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं थमा

पश्चिम बंगाल में CBI को कोलकाता पुलिस ने ही अरैस्ट कर लिया. स्वतंत्र हिंदुस्तान के इतिहास में यह एक बड़ी घटना है. इन सबके बीच एक सवाल खड़ा होना लाजमी है. ’क्या CBIको तोता बनाने का नतीजा है पश्चिम बंगाल की घटना’. राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते सुप्रीम न्यायालय तक ने राष्ट्र की केंद्रीय जांच एजेंसी को ‘तोता’ कह दिया. वजह, जिस एक्ट के तहत CBI का गठन हुआ यानी ‘दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेबलिशमेंट एक्ट-1946’ में CBI नाम ही नहीं लिखा है. जब यह संवैधानिक संस्था नहीं है तो फिर इसे पूर्ण स्वायत्तता कहां से मिलती. गोवाहाटी न्यायालय 2013 के अपने एक निर्णय में CBI को असंवैधानिक करार दे चुका है. यह केस आज भी सुप्रीम न्यायालय में पेंडिंग है. चूंकि गवर्नमेंट को स्टे मिल गया, इसलिए CBI अपना कार्य कर पा रही है. आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़  पश्चिम बंगाल CBI के मामले में केंद्र को दी अपनी सहमति वापस ले चुके है, इसके पीछे जांच एजेन्सी के पास संवैधानिक दर्जा न होना एक बड़ा कारण रहा है.

सुप्रीम न्यायालय के अधिवक्ता डॉ एलएस चौधरी का कहना है कि गोवाहाटी न्यायालय ने अपने एक निर्णय में CBI को असंवैधानिक करार दिया था. केंद्र गवर्नमेंट ने तुरत-फुरत इस निर्णय के विरूद्ध सुप्रीम न्यायालय में नौ नवंबर 2013 को दूसरे शनिवार की छुट्टी के दिन स्टे ले लिया. खास बात, तब से लेकर आज तक सुप्रीम न्यायालय में वह अपील पेंडिंग है.गवर्नमेंट हर बार नयी तारीख ले लेती है. यही वजह है कि ‘सीबीआई’ तोते की छवि से बाहर नहीं निकल पाई.

दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेबलिशमेंट एक्ट-1946 में ‘सीबीआई’ कहीं नहीं लिखा है

अधिवक्ता डॉ एलएस चौधरी बताते हैं, दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेबलिसमेंट (डीएसपीई) एक्ट-1946, के तहत CBI के गठन या उसके अधिकार एरिया की बात कही जाती है. खास बात है कि डीएसपीई एक्ट में ‘सीबीआई’ शब्द ही नहीं लिखा है. इस एक्ट में संशोधन हुए, मगर CBI नाम फिर भी शामिल नहीं हो सका. संविधान के किसी भी चैप्टर में CBI के गठन का कहीं कोई प्रावधान ही नहीं है. चौधरी के मुताबिक, यही वजह है कि ‘केंद्रीय जांच एजेंसी’ को आज भी संवैधानिक दर्जा हासिल नहीं है. CBI एक अप्रैल 1963 को एक एग्जीक्यूटिव ऑर्डर के तहत बनी थी.

संविधान सभा के सदस्यों ने इस जांच एजेंसी मामले में क्या बोला था

संविधान सभा के सदस्य नजीरुददीन अहमद  चिकित्सक बीआर अंबेडकर ने CBI जैसी संस्था होने की बात कही थी. उनका कहना था कि ऐसी एजेंसी केंद्र गवर्नमेंट की ‘संघ सूची’ के विषयों में शामिल रहेगी. इसका कामकाज अपराधी केस दर्ज करना या क्रिमिनल को अरैस्ट करना नहीं होगा. यह एजेंसी केंद्र गवर्नमेंट के पास विभिन्न अपराधों की जो सूचनाएं आती हैं, उन्हें क्रॉस चैक कर सकती है. एजेंसी के पास अंतरराज्य अपराधों की तुलना कर उसकी रिपोर्ट केंद्र गवर्नमेंट को देने का अधिकार था. पुलिस, जो कि ‘राज्य सूची’ का विषय है, उसकी तर्ज पर यह जांच एजेंसी न तो किसी को अरैस्ट कर सकती है  न ही किसी से पूछताछ. आज CBI द्वारा किसी को गिरफ़्तार करने, जांच करने या पूछताछ का जो भी अधिकार मिला है, वह डीएसपीई एक्ट के तहत संभव हो सका है.

सीबीआई को लेकर गोवाहाटी न्यायालय का फैसला, इसे ऐसे समझें

सुप्रीम न्यायालय के अधिवक्ता डॉ एलएस चौधरी, जिन्होंने CBI की संवैधानिक वैलिडिटी को चुनौती दी थी, के मुताबिक गुवाहाटी न्यायालय ने छह नवंबर 2013 को अपने निर्णयमें बोला था कि CBI संवैधानिक संस्था नहीं है. इसके पास किसी आदमी को हिरासत में लेने का अधिकार नहीं है. खास बात, न्यायालय ने कहा, संविधान के अनुसार केंद्र गवर्नमेंट ऐसी एजेंसी या फोर्स नहीं रख सकती. न्यायालय ने CBI को पूरी तरह असंवैधानिक घोषित कर दिया था. अगर CBI को पुलिस की तरह अधिकार देने हैं तो उसे संविधान की ‘समवर्ती सूची’ में शामिल करना होगा.

थोड़ी मजबूती मिली, लेकिन राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं थमा

सुप्रीम न्यायालय ने विनीत नारायण मामले में CBI निदेशक को थोड़ी मजबूती देने का कार्य किया. इस निर्णय के बाद निदेशक का कार्यकाल न्यूनतम दो वर्ष कर दिया गया. इसके बाद यह उम्मीद की गई कि अब जांच एजेंसी का निदेशक केंद्र गवर्नमेंट के दबाव में आकर कार्य नहीं करेगा. सुप्रीम न्यायालय के दखल के बाद ही CBI निदेशक की नियुक्ति के लिए एक चयन समिति का गठन हो सका. इसके बावजूद CBI पर राजनीतिक हस्तक्षेप के आरोप लगते रहे. पिछले वर्ष आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़  पश्चिम बंगाल गवर्नमेंट ने अधिकारिक तौर पर CBI को राज्य में जांच करने  छापा मारने के लिये दी गई सामान्य सहमति वापस ले ली है. इन राज्यों का आरोप था कि CBI निष्पक्ष जांच एजेंसी नहीं है. यह एजेंसी गवर्नमेंटके इशारे पर राजनीतिक विरोधियों को जानबूझकर प्रताड़ित करती है.

सीबीआई को ‘पिंजरे का तोता’ क्यों बोला गया था

CBI के पूर्व निदेशक सरदार जोगेंद्र सिंह ने एक इंटरव्यू में बोला था, जांच एजेंसी के पास एक एडवोकेट रखने का अधिकार तो है नहीं. गिरफ्तारी हो या चार्जशीट, हर बात के लिए गवर्नमेंट से मंजूरी लेनी पड़ती है. इस इंतजार में कई बार साक्ष्य नष्ट हो जाते हैं. अफसोस की बात है कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी यह जांच एजेंसी डीएसपीई एक्ट के तहत चल रही है. CBI को पूर्ण स्वायत्तता प्रदान करने के लिए इसे संवैधानिक दर्जा देना होगा. इस एजेंसी को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाने का एकमात्र यही उपाय है. डॉ एलएस चौधरी कहते हैं कि दिल्ली न्यायालय ने जयदेव बनाम हिंदुस्तान गवर्नमेंट केस में बोला था, CBI का अपना डायेक्टर प्रोसिक्यूशन होगा. बाद में जांच एजेंसी ने इसकी स्वायत्तता पर भी अंकुश लगाकर इसे पुलिस नियमों के मुताबिक कार्य लेना शुरु कर दिया.

ऐसे मिल सकती है CBI को पूर्ण स्वायत्तता

अधिवक्ता डॉ एलएस चौधरी का कहना है कि CBI को संवैधानिक दर्जा दिलाने के लिए गवर्नमेंट को संविधान संशोधन करना होगा. इसके लिए दोनों सदनों में अलग-अलग दो तिहायी बहुमत से प्रस्ताव पास होना जरुरी है. CBI के पूर्व निदेशक यूएस मिश्रा ने एक इंटरव्यू में बोला था, पूर्ण स्वायत्तता न होने के कारण जांच एजेंसी को भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. पूर्व दूरसंचार मंत्री सुखराम के मामले में निदेशक को पीएम ने बड़ी कठिन से मिलने का समय दिया था. पूर्व निदेशक आरके राघवन ने भी स्वीकारा था कि जांच एजेंसी पर राजनीतिक दबाव रहता है. हर बात में मंजूरी लेनी पड़ती है, मामलों की जांच में देरी होती है, नतीजा न्यायालय की फटकार खाओ. इससे बचाव का एक ही उपाय है कि जांच एजेंसी को पर्याप्त स्वायत्तता  अधिकार दिए जाएं.