अब ये सारे सांसद गंवा सकते हैं अपनी सदस्यता, जानिए कैसे…

बीते कुछ वक्त में देश के भीतर इस कदर सियासी बवंडर खड़ा हुआ है, जिसमें दल-बदल, हॉर्स-ट्रेडिंग, विधायकों का अपना दल छोड़ दूसरे में शामिल होने की घटनाएं आम तौर पर बढ़ी हैं.

पिछले दिनों में गोवा में कांग्रेस पार्टी के 15 में से 10 विधायकों ने भाजपा का दामन थाम लिया. वहीं, तेलंगाना में कांग्रेस पार्टी 16 में से 12 विधायक तेलंगाना देश समिति (TRS) में शामिल हो गए. ऐसे में सवाल उठता है कि इस तरह के मामलों से हिंदुस्तान का दल-बदल कानून कैसे निपटता है? इस सवाल का जवाब जानने से पहले आपको जानना होगा कि आखिर दल-बदल कानून क्या है  इसे बनाने की नौबत क्यों आई.

दल-बदल विरोधी कानून  इसकी जरूरत: भारतीय संविधान के 10वीं अनुसूची में इस कानून को शामिल किया गया है. इसे संसद ने 1985 में पारित किया था  1 मार्च 1985 से यह प्रभावी भी हो गया. दल-बदल विरोधी कानून की आवश्यकता ऐसे समय में ज्यादा महसूस होने लगी, जब विधायिका (संसद या विधानसभा) के मेम्बर फायदा के लिए एक दल से दूसरे दल का रुख करने लगे. एक वक्त में ‘आया राम, गया राम’ की उक्ति बहुत ज्यादा प्रचलित हो चुकी थी. ऐसे दशा में राजनीतिक अस्थिरता का ख़तरा बहुत ज्यादा बढ़ गया. स्थिति को भांपते हुए नीति निर्धारकों ने दल-बदल विरोधी कानून बनाने का विचार किया. लेकिन, आरंभ में ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ का हवाला देकर इसका बहुत ज्यादा विरोध हुआ. संसद विधानसभा सदस्यों के एक वर्ग को लगता था कि सख़्त कानून लागू होने की वजह से उनकी अभिव्यक्ति ख़तरे में आ सकती है. लिहाजा, बहुत ज्यादा वक़्त तक यह मामला अटका रहा. लेकिन, आखिरकार 1985 में राजीव गांधी की सरकार ने इसे संसद से पारित करा दिया.

दल-बदल विरोधी कानून  अयोग्य ठराहने की वजहें: इसका उद्देश्य निश्चित रूप से राजनीतिक दलबदल पर रोक लगाना है. इस कानून के संदर्भ में दो ऐसे बड़े कारण हैं, जिनके आधार सांसद या विधायक को अयोग्य करार दिया जा सकता है. पहला यह कि यदि मेम्बर स्वेच्छा से अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ता है, तो वह अयोग्य करार दिया जाएगा. स्वेच्छा से पार्टी सदस्यता छोड़ना  त्याग-पत्र देना एक ही बात नहीं है. बिना त्याग-पत्र दिए भी मेम्बर को विधानसभा स्पीकर अयोग्य घोषित कर सकता है. दूसरा आधार यह है कि यदि विधायक या सांसद अपनी पार्टी के ख़्वाहिश के उल्टा वोट देता है  उसका दल इसका विरोध करता है तो वह अयोग्य करार दिया जाएगा. हालांकि, इसमें एक अपवाद भी शामिल किया गया है. जिसके मुताबिक यदि दो राजनीतिक दलों का आपस में विलय होता है  दो तिहाई मेम्बर इस पर अपनी सहमति जाहीर करते हैं तो उन्हें अयोग्य करार नहीं दिया जा सकता.

कानून में बदलाव: 2003 में दल-बदल विरोधी कानून में संशोधन किए गए. पहले इस कानून के तहत यह प्रावधान था कि यदि मूल राजनीतिक दल से हटकर एक तिहाई मेम्बर नयीपार्टी का गठन करते हैं तो उन्हें अयोग्य करार नहीं दिया जाएगा. लेकिन, इस प्रावधान की वजह से भी कई बार भारी राजनीतिक संकट देखे गए. स्थिति की गंभीरता को भांपते हुए इस संशोधन प्रस्ताव के जरिए इस समाप्त कर दिया गया. अब सिर्फ राजनीतिक दलों के विलय का ही प्रावधान सुनिश्चित किया गया है.