कड़ाके की ठंड के बीच भाई-भाई के नारा लगाते हुए चीनी सेना ने लद्दाख के रेजांग ला में शुरू कर दी घुसपैठ

1962 का नवंबर महीना, बर्फ से ढंकी लद्दाख की चुशुल घाटी उस समय तोप के गोलों और गोलियों की आवाजों से गूंज उठी जब भारतीय सेना के 120 जवानों पर चीनी सेना के लगभग छह हजार सैनिकों ने हमला कर दिया।


कड़ाके की ठंड के बीच हिंदी-चीनी, भाई-भाई के नारा लगाते हुए चीनी सेना ने लद्दाख के रेजांग ला में घुसपैठ शुरू कर दी। सामरिक रूप से महत्वपूर्ण इस इलाके की सुरक्षा की जिम्मेदारी सेना की सबसे पुरानी रेजीमेंट 13 कुमांयू के कंपनी लीडर मेजर शैतान सिंह के हाथों में थी।

भारतीय सेना ने इस युद्ध में चीनी सैनिकों का मुकाबला मुख्य रूप से 303 राइफल के साथ किया था। कुछ सैनिकों के पास ही ऑटोमेटिक मशीनगन थी। अधिक ऊंचाई के कारण भारतीय सेना के पास एक भी भारी हथियार नहीं था जिससे चीनी सेना के आक्रमण का मुकाबला किया जा सके। सैनिकों के पास गर्म कपड़े तक नहीं थे। कई सैनिकों के पास जूते तक नहीं थे। गोलियां भी सीमित संख्या में थी।

इस कंपनी की पोजीशन एक पहाड़ी के पीछे थी। उनकी सहायता के लिए पीछे से आर्टिलरी (तोप) से भी फायर नहीं किया जा सकता था। वहीं सामने से वे दुश्मन के तोपों के निशाने पर थे।

इस कंपनी के पास भीषण बर्फबारी में रहने लायक कपड़े तक नहीं थे। माइनस में तापमान होने के कारण भारतीय सेना के अधिकतर हथियारों से फायर तक नहीं हो पा रहा था। लेकिन उन्होंने चीनी सेना के सामने समर्पण करने के बजाए युद्ध करने का फैसला किया।

अपने अदम्य साहस और बहादुरी के लिए प्रसिद्ध भारतीय सेना के इन बहादुर जवानों ने चीनी सैनिकों की संख्या और उनके आधुनिक हथियारों की परवाह न करते हुए रेजांग ला को उनकी कब्रगाह बना दी।

मेजर शैतान सिंह की कंपनी ने आखिरी आदमी, आखिरी राउंड और आखिरी सांस तक लड़ाई लड़ी। अदम्य साहस का प्रदर्शन करते हुए 13 कुमाऊं के 120 जवानों ने चीनी सेना के 1300 सैनिकों को मार गिराया।

चीन की बड़ी सेना के सामने भारतीय सेना के इन वीर सिपाहियों ने आखिरी गोली तक लड़ाई की। इस दौरान मातृभूमि की रक्षा करते हुए 114 सैनिक शहीद हो गए जबकि छह सैनिकों को चीनी सेना ने बंदी बना लिया।

लेकिन, बंदी बनाए गए सभी सैनिक चमत्कारिक रूप से चीनी सेना के चंगुल से बचकर निकल गए। बाद में इस सैन्य टुकड़ी को पांच वीर चक्र और चार सेना पदक से सम्मानित किया गया था।

अपने अदम्य साहस और नेतृत्व कौशल के लिए मेजर शैतान सिंह को मरणोपरांत सर्वोच्च सैन्य सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।