अयोध्या मामले पर इस तिकड़ी ने कई संघर्ष किए, जिसे कतई भुलाया नहीं जा सकता?

अयोध्या मामले को अंजाम तक पहुंचाने में न जाने कितने लोगों ने अपने-अपने स्तर पर योगदान दिया है, लेकिन कुछ ऐसे व्यक्तित्व भी हैं जिन्होंने एक सपना देखा और उसे साकार करने के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया। आइए जानते हैं ऐसी ही तीन शख्सियतों के बारे में जो राम मंदिर बनवाने का संकल्प लेकर जिए और अब इस मामले पर सबसे बड़ा फैसला देखने-सुनने के लिए हमारे बीच नहीं है।

अशोक सिंहल मंदिर आंदोलन के मुख्य शिल्पी थे। इसके पीछे उनके प्रभावी संस्कार, संगठन एवं संवाद की अपूर्व सामथ्र्य थी। आगरा में जन्मे सिंहल के पिता सरकारी कर्मचारी थे। 1942 में किशोरावस्था के ही दौरान वे आरएसएस से जुड़ कर देश और समाज की सेवा की ओर उन्मुख हुए।

1950 में बीएचयू से धातु इंजीनियरिंग में स्नातक सिंहल ने जीवन को आरएसएस के प्रति समर्पित किया। संघ ने उन्हें विराट हिंदू सम्मेलनों का दायित्व सौंपा। इस भूमिका में वे पहले से ही अपना लोहा मनवा चुके थे। हालांकि उनका श्रेष्ठतम आना बाकी था और यह 1984 में मंदिर आंदोलन के साथ बयान हुआ। कुछ ही वर्षों में यदि मंदिर आंदोलन परवान चढ़ा तो सिंहल के नेतृत्व का डंका भी बजा। मंदिर आंदोलन 1989 से 92 तक चरम के उस दौर से गुजरा, जब सिंहल के आह्वान पर लाखों मंदिर समर्थक बराबर जुटते रहे। हालांकि ढांचा ध्वंस के बाद मंदिर निर्माण की लंबी होती प्रतीक्षा के चलते मंदिर आंदोलन का ताप कम पड़ गया, पर सिंहल पूरी गंभीरता से अपने प्रयास में लगे रहे।

उनके लिए राममंदिर और राष्ट्रमंदिर एक ही सिक्के के दो पहलू थे और उनकी हर पहल पर इस अवधारणा की छाप थी। विहिप में उनके नायब माने जाने वाले डॉ. प्रवीण तोगड़िया ने धुर हिंदुत्व के नाम पर नरेंद्र मोदी की आलोचना शुरू की तो सिंहल ने उनसे भी दूरी बना ली और सिंहल के मुंह मोड़ने की वजह से ही वह दिन भी आ गया जब तोगड़िया की विहिप से छुट्टी हो गई। मंदिर निर्माण का स्वप्न संजोए सिंहल 17 नवंबर 2015 को चिरनिद्रा में लीन हो गए। विहिप के प्रांतीय प्रवक्ता शरद शर्मा कहते हैं, काश आज सिंहल जी होते। उन्होंने रामजन्मभूमि मुक्ति का जो स्वप्न देखा उसे चंद वर्षों में करोड़ों रामभक्तों की जेहन में स्थापित हो गया और आज यह स्वप्न साकार हुआ है।

परमहंस: मंदिर आंदोलन के चेहरा बने

मंदिर-मस्जिद विवाद एक युग की तरह है। इसे पात्र गढ़ते रहे और यह पात्रों को गढ़ता रहा। रामचंद्रदास परमहंस इस सच्चाई-समीकरण के पर्याय हैं। छपरा जिला के भगेरन तिवारी का युवा बेटा चंद्रेश्वर अपनी यायावरी के चलते 1930 में अयोध्या आया और यहीं का होकर रह गया। यहीं के गुरु परमहंस रामकिंकरदास ने दीक्षा के साथ नया नाम भी दिया। चंद्रेश्वर अब रामचंद्रदास हो गए थे। जल्दी ही उनका साबका उस स्थल से पड़ा, जिसे श्रद्धालु रामजन्मभूमि मानते थे और दूसरा पक्ष उसे मस्जिद कहता था। युवा परमहंस के लिए यह असहनीय था कि उनके आराध्य भव्य मंदिर में न विराजें। छह दिसंबर 1992 से पूर्व 1934 में भी विवादित ढांचे को क्षति पहुंचाई गई थी और इस मुहिम में परमहंस भी शामिल थे।

हालांकि तब परमहंस की उनकी उपाधि पक्की नहीं हुई थी। आयुर्वेदाचार्य की डिग्री लेकर अयोध्या आए रामचंद्रदास को परमहंस उपाधिधारी होने में कुछ वर्ष लग गए। हरफनमौला परमहंस जितने प्रखर शास्त्र एवं साधना के तल पर थे, उतने ही प्रखर सामाजिक दायित्वों के प्रति भी थे। उनकी पहचान लोगों के सहायक के साथ सभा-समारोहों के शानदार वक्ता की बनी। …और गुरु परंपरा से प्रसाद स्वरूप मिली परमहंस की उपाधि समाज में भी स्वीकृत-शिरोधार्य हुई।

1949 में रामलला के प्राकट्य तक वे परिपक्व हो चले थे और इस दौरान उन्होंने पूरी परिपक्वता का परिचय भी दिया। प्राकट्य के साथ रामलला की उसी स्थल पर सलामती के लिए परमहंस दृढ़ नायक की तरह सामने आए। पांच दिसंबर 1950 को स्थानीय कोर्ट में वाद दायर कर भी रामलला के पूजन एवं दर्शन का अधिकार मांगा। 1984 में मंदिर की दावेदारी को जनांदोलन का रूप देने के लिए आगे आई विहिप की भी वे पहली पसंद बने और कुछ ही दिनों में मंदिर आंदोलन का चेहरा बनकर स्थापित हुए।

नई दिल्ली की जिस धर्मसंसद में गठित रामजन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति संघर्ष का प्रस्ताव पारित किया, उसकी अध्यक्षता रामचंद्रदास परमहंस ने ही की थी। 1990 में परमहंस ने गोलियों की बौछार की परवाह किए बगैर कारसेवकों को बचाने का प्रयास कर स्नेहिल संरक्षक की पहचान पुख्ता की। रामजन्मभूमि न्यास अध्यक्ष की जिम्मेदारी मिलने के साथ उनका कद और व्यापक हुआ। विवादित ढांचा ध्वंस के एक दशक बाद जब विहिप नेतृत्व के सामने मंदिर निर्माण से जुड़ी अपेक्षाओं पर खरा उतरने का दबाव बढ़ा तब परमहंस पुन: संकटमोचक बनकर आगे आए। 94 वर्ष की उम्र में मंदिर निर्माण शुरू न हो पाने की स्थिति में आत्महत्या का एलान किया।

परमहंस जैसे दिग्गज के सामने दबाव में आई तत्कालीन केंद्र सरकार ने बीच का रास्ता निकाला और प्रधानमंत्री कार्यालय में अयोध्या सेल के प्रभारी एवं वरिष्ठ आइएएस अधिकारी शत्रुघ्न सिंह को परमहंस को मनाने के लिए विशेष दूत के रूप में भेजा गया। परमहंस दृढ़ तो थे, पर अड़ियल नहीं थे। उन्होंने शत्रुघ्न सिंह को शिलादान कर यह संदेश दिया कि विहिप मंदिर निर्माण के प्रयास में लगी है। हालांकि वे इन प्रयासों को फलीभूत होते नहीं देख सके। 31 जुलाई 2003 को परमहंस ने अंतिम श्वांस ली।

पहली पसंद बने और कुछ ही दिनों में मंदिर आंदोलन का चेहरा बनकर स्थापित हुए। नई दिल्ली की जिस धर्मसंसद में गठित रामजन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति संघर्ष का प्रस्ताव पारित किया, उसकी अध्यक्षता रामचंद्रदास परमहंस ने ही की थी। 1990 में परमहंस ने गोलियों की बौछार की परवाह किए बगैर कारसेवकों को बचाने का प्रयास कर स्नेहिल संरक्षक की पहचान पुख्ता की। रामजन्मभूमि न्यास अध्यक्ष की जिम्मेदारी मिलने के साथ उनका कद और व्यापक हुआ। विवादित ढांचा ध्वंस के एक दशक बाद जब विहिप नेतृत्व के सामने मंदिर निर्माण से जुड़ी अपेक्षाओं पर खरा उतरने का दबाव बढ़ा तब परमहंस पुन: संकटमोचक बनकर आगे आए। 94 वर्ष की उम्र में मंदिर निर्माण शुरू न हो पाने की स्थिति में आत्महत्या का एलान किया। परमहंस जैसे दिग्गज के सामने दबाव में आई तत्कालीन केंद्र सरकार ने बीच का रास्ता निकाला और प्रधानमंत्री कार्यालय में अयोध्या सेल के प्रभारी एवं वरिष्ठ आइएएस अधिकारी शत्रुघ्न सिंह को परमहंस को मनाने के लिए विशेष दूत के रूप में भेजा गया। परमहंस दृढ़ तो थे, पर अड़ियल नहीं थे। उन्होंने शत्रुघ्न सिंह को शिलादान कर यह संदेश दिया कि विहिप मंदिर निर्माण के प्रयास में लगी है। हालांकि वे इन प्रयासों को फलीभूत होते नहीं देख सके। 31 जुलाई 2003 को परमहंस ने अंतिम श्वांस ली।

अवेद्यनाथ: त्रिमूर्ति के अहम घटक

गोरक्ष पीठाधीश्वर महंत अवेद्यनाथ मंदिर आंदोलन की त्रिमूर्ति के अहम घटक थे। मंदिर आंदोलन उन्हें विरासत में मिला था। वे जिन दिग्विजयनाथ के शिष्य थे, उनकी गणना हिंदुत्व के दिग्गज पुरोधा के रूप में होती रही। गुरु की अंगुली पकड़कर साधना के साथ सामाजिक सरोकारों का पाठ पढ़ने वाले अवेद्यनाथ ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1969 में गुरु के साकेतवास के बाद उनके कंधों पर गोरक्षपीठ की गद्दी संभालने और हिंदू महासभा से जुड़ी सियासत के साथ हिंदुत्व का शंखनाद जारी रखने की जिम्मेदारी आ पड़ी।

इसके लिए बखूबी तैयार भी थे। वे तब तक गोरखपुर जिले की मानीराम विधानसभा सीट से तीन बार विधायक चुने जा चुके थे और गोरक्षपीठाधीश्वर बनने के अगले ही साल यानी 1970 में गोरखपुर सीट से सांसद चुने गए। 1984 में मंदिर आंदोलन के नेतृत्व के लिए वे आंदोलन के शिल्पियों के लिए सटीक किरदार थे। उन्हें मंदिर आंदोलन के लिए गठित राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का सर्वसम्मत से प्रथम अध्यक्ष बनाया गया।

1989 में वे दूसरी बार गोरखपुर लोस क्षेत्र से सांसद चुने गए और इस दायित्व के साथ उन्होंने लोकसभा में भी मंदिर की आवाज बुलंद की। 1991 के चुनाव में हिंदू महासभा से त्यागपत्र देकर भाजपा के टिकट पर गोरखपुर से तीसरी बार चुने गए। 1996 में चौथी बार सांसद चुने जाने के बाद उन्होंने अपनी राजनीतिक विरासत शिष्य एवं उत्तराधिकारी योगी आदित्यनाथ को सौंप दी। 12 सितंबर, 2014 को मंदिर आंदोलन की कामयाबी का स्वप्न लिए वे 94 वर्ष की अवस्था में चिरनिद्रा में लीन हो गए।