जानिए इस वजह से लोकसभा चुनाव में डूबी RJD की लुटिया

इस लोकसभा चुनाव में महागठबंधन के दो प्रमुख घटक दल राजद  कांग्रेस पार्टी का प्रदर्शन बहुत ज्यादा निराशाजनक रहा. राजद न सिर्फ सबसे कम सीट पर लड़ा, बल्कि सभी सीटों पर पराजय गया. साथ ही, उसे मिले वोट फीसदी को देखें, तो अब तक का यह सबसे कम रहा.

पार्टी ने इस बार मात्र 19 सीटों पर उम्मीदवार दिए, उसे सिर्फ 15.36 फीसदी वोट मिले सीटें तो एक भी नहीं जीत पाई. वहीं, गत लोकसभा चुनाव के नतीजों से तुलना करें तो इस बार कांग्रेस पार्टी की सीटें भले घट गई हों, लेकिन वोट का फीसदी बढ़ गया है.

आंकड़े बता रहे हैं कि इस चुनाव में पांच फीसदी वोट घटे तो राजद की लुटिया डूब गई. पिछले दो चुनावों में लगभग 20 फीसदी वोट पाने के बावजूद राजद को चार-चार सीटें मिली थीं.लेकिन इस बार वोटों का फीसदी 15.36 पर पहुंचा तो सीटों की संख्या शून्य हो गई.

वोट फीसदी  जीती गई सीटों की संख्या के हिसाब से राजद का स्वर्णिम काल 2004 का लोकसभा चुनाव था. तब 30.6 फीसदी वोट पाकर पार्टी ने 24 सीटें जीती थीं. इसमें भी 23 सीटें बिहार में थीं तो मात्र एक सीट झारखंड क्षेत्र में. उस समय राजद ने कांग्रेस पार्टी के साथ समझौते के तहत उसके लिए मात्र चार सीटें छोड़े थे.

वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने प्रदेश की 40 सीटों में 29 पर अपने उम्मीदवार उतारे थे. उस समय पार्टी का सिर्फ लोजपा से समझौता था. कांग्रेस पार्टी समझौते से अलग हो गई थी. पार्टी को मात्र 19 फीसदी वोट मिले थे, लेकिन तब भी इसके चार उम्मीदवार संसद पहुंच गये थे. वहीं, 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने कांग्रेस पार्टी  राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ समझौता किया था. तब राजद 27 सीटों पर लड़ा था. लेकिन एक बार फिर जीत मात्र चार सीटों पर ही हुई. हालांकि वोटों के फीसदी में इसके पहले चुनाव से थोड़ी वृद्धि हुई पार्टी को 20.46 फीसदी वोट मिले.

जनता दल से अलग होने के बाद राजद का गठन 1997 में हुआ था. उसके बाद 1998 में यह पार्टी पहली बार लोकसभा चुनाव में उतरी. तब संयुक्त बिहार में लोकसभा की 54 सीटें थीं.उस समय पार्टी का समझौता वामदल  झारखंड मुक्ति मोर्चा से था. सहयोगी दलों के लिए पार्टी ने 11 सीटें छोड़ी थीं. शेष 43 सीटों पर राजद उम्मीदवार थे. हालांकि जीत सिर्फ 17 उम्मीदवारों को मिली थी. उसके बाद दूसरा लोकसभा चुनाव राजद के सामने एक वर्ष बाद ही यानी 1999 में आ गया. उस समय भी समझौता  लड़ी जाने वाली सीटों की संख्या लगभग वही रही. लेकिन, जीती गई सीटों की संख्या 17 से घटकर मात्र सात रह गईं.