पश्चिम बंगाल की जिन आठ लोकसभा सीटों पर 12 मई को मतदान होना है, उनमें से छह चुनावी हिंसा के लिए कुख्यात हैं. प्रदेश में कुछ जगहों पर हुई हिंसा खून के धब्बों व गोलियों की आवाज के रूप में सामने आई, लेकिन कई जगहों पर दबी रही. इन स्थानों पर लोगों को डराया गया व राजनीतिक गुंडों ने लोगों को मतदान बूथ तक जाने से रोका.
रविवार को तोमलुक, कांथी, घाटल, बांकुड़ा, बिश्नुपुर, मिदनापुर, झारग्राम व पुरुलिया में मतदान है. पिछले वर्ष पंचायत चुनाव में पुरुलिया व झारग्राम को छोड़ दें तो बाकी छह सीटों की पंचायतों में विपक्षी दल नामांकन भी नहीं कर सके थे. बंगाल में राजनीतिक व चुनावी हिंसा का लंबा इतिहास है. स्वतंत्रता से पहले भी युवाओं ने देश को आजाद कराने के लिए अनुसीलन व जुगान्तर जैसे संगठन बनाए थे. आजादी के बाद बी। टी। रानादीव के नेतृत्व में माकपा ने देश में क्रांति के लिए सशस्त्र प्रयत्न का आह्वान किया था. इस वजह से 1947 से 1952 तक पश्चिम बंगाल हिंसक प्रदेश रहा. 1952 से 1967 तक बंगाल के विभाजन की वजह से प्रदेश की आबादी में आकस्मित ही वृद्धि हो गई. जिससे भोजन व आश्रय की मांग प्रदेश की स्थायी समस्या बन गई व इसके चलते हिंसक पॉलिटिक्स आम हो गई.
1977 में लेफ्ट सत्तासीन हुआ. 1977 से 1990 तक राजनीतिक व चुनावी हिंसा कम रही, क्योंकि सरकार लोकप्रिय थी व विपक्ष कमजोर. लेकिन, लेफ्ट सरकार ने सत्ता जाने के भय से सत्ता समर्थक गुंडों को हिंसा की छूट दी.
लेफ्ट की इसी नीति के विरूद्ध ममता बनर्जी ने आंदोलन किया. 1998 में उन्होंने तृणमूल कांग्रेस पार्टी (टीएमसी) बनाई व सत्ता में भी आ गईं. ममता ने लोगों से वादा किया था कि वह साफ-सुथरी सरकार देंगी, लेकिन वह वादे पर कायम नहीं रह सकीं. चुनावी हिंसा अभी भी जारी है व कई मामलों में तो यह पहले से भी अधिक है.
पहले चरण के चुनाव में 11 अप्रैल को पैरामिलिट्री बलों की 83 कंपनियां तैनात की गईं थीं. जबकि पांचवें चरण के मतदान के लिए 770 कंपनियां तैनात की गईं.चुनाव में सुरक्षा बलों को देखकर लोगों का आत्मविश्वास बढ़ता है, लेकिन सवाल यह है कि क्या ये सुरक्षा बल मतदान में होने वाली गड़बड़ी को रोक सकते हैं? इसका जवाब है एकदम नहीं. अभी से सत्ताधारी व विपक्षी दोनों ही शिकायत करने लगे हैं. टीएमसी जहां केंद्रीय बलों की अत्यधिक उपस्थिति पर सवाल उठा रही है वही विपक्षियाें का बोलना है कि सुरक्षा बल पर्याप्त तौर पर एक्टिव नहीं हैं.
पूरे हिंदुस्तान में लोग उत्साह से मतदान कर रहे हैं, लेकिन बंगाल अकेला ऐसा प्रदेश है जहां विपक्षी दलों को वोट करने वाले डरे हुए हैं. उन्हें इतना डरा दिया जाता है कि वे घर से भी नहीं निकलते हैं. कोलकाता में तो ऐसा नहीं होता, लेकिन ग्रामीण इलाकों में यह बहुत आम व पुरानी बात है. लोगाें के न आने पर सत्ताधारी दल के ‘दादा’ प्रकट होते हैं व बूथ पर तैनात प्रदेश के सरकारी कर्मचारियों से सांठगांठ करके अपने लोगों से वोट डलवा देते हैं. बूथ के बाहर तैनात सुरक्षा बलों को इसका पता भी नहीं चलता, क्योंकि वे लोकल लोगों को जानते ही नहीं हैं. इसके लिए सबसे पहले विपक्षी दलों के बूथ एजेंटों को डराकर भगाया जाता है या फिर डमी प्रत्याशियों के एजेंटों के समर्थन से वे उस पर हावी हो जाते हैं. यही वजह है कि सिर्फ केंद्रीय बलों की तैनाती से ही निष्पक्ष चुनाव नहीं हो सकते. क्या ऐसा सभी बूथों पर होता है? नहीं, ऐसा कुछ चुनें हुए बूथों पर ही किया जाता है.
इस बार की चुनावी हिंसा में अब तक तीन लोगों की मृत्यु के बाद यह सवाल उठना लाजिमी है कि बंगाल में इतनी हिंसा क्यों होती है?
बंगाल में जबरदस्त बेरोजगारी की वजह से युवा सत्ताधारी दलों पर निर्भर हैं. सत्ताधारी दल के दादाओं की अनुमति के बिना न तो कोई रिक्शा चला सकता है व न ही रेहड़ी लगा सकता है. चुनाव के मौके पर सत्ताधारी दल अपनी इसी फोर्स का प्रयोग जीत के लिए करते हैं. निष्कर्ष यही है कि एक विकसित, उच्च साक्षरता दर व कम बेरोजगारी वाले प्रदेश में ही स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव संभव हैं. इन पैरामीटर पर पश्चिम बंगाल बहुत पीछे है.