आयुर्वेद की इन इन जड़ी-बूटियों से करे मिर्गी का इलाज 

आयुर्वेदिक ग्रंथों में मिर्गी को ‘अपस्मा’ बोला गया है. समय रहते यदि इस रोग का उपचार न हो तो दौरों की आवृत्ति बढ़ने लगती है. आयुर्वेद में मिर्गी का इलाज मरीज की प्रकृति के आधार पर किया जाता है.

वातिक अपस्मार : मन विचलित रहना, कब्ज, गैस और वायु दिमाग में चढऩे से सिरदर्द, वातिक अपस्मार के लक्षण हैं. इसमें मरीज को अरंड का ऑयल (10-20 एमएल), दूध या सौंठ पाउडर के काढ़े में 3-4 दिन तक लेने के लिए बोला जाता है. इससे आंतें चिकनी होकर पेट साफ होता है. इसके बाद ही मरीज का उपचार प्रारम्भ किया जाता है.

पित्त अपस्मार : गुस्सा आना, पेट में जलन, भूख की अधिकता, बार-बार दस्त जैसे लक्षण पित्त अपस्मार में होते हैं. इसमें मरीज को इंद्रायण फल का चूर्ण 4-5 दिनों तक देकर विरेचन (लूज मोशन) कराया जाता है  फिर मरीज का उपचार प्रारम्भ कर ध्यान रखा जाता है कि मरीज को फिर से पित्त बढ़ने की समस्या न हो. इसमें आंवले के चूर्ण का इस्तेमालकिया जाता है.

कफ अपस्मार : सिर भारी और रोगी का उदास रहना कफ अपस्मार के लक्षण हैं. इसमें तीन दिन तक नीम के पत्तों से तैयार काढ़े से रोगी को उल्टी (वमन) कराकर कफ बाहर निकालते हैं. इस उपचार में कफ को नियंत्रित रखने पर भी ध्यान दिया जाता है.

जड़ी-बूटियां : उपचार के लिए कालीमिर्च, पलाश बीज, कुचला, स्मृतिसागर, योगराज गुग्गल, हींग, अजवाइन, शंखपुष्पी और ब्राह्मी जैसी जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल लक्षणों और रोगी की प्रकृति के अनुसार उपचार में किया जाता है. साथ ही शुद्धिकरण के लिए हर 10 दिन में 10 ग्राम त्रिफला चूर्ण को पानी से लेने की सलाह दी जाती है.

उपचार : मरीज को एक माह की दवा देने के बाद फॉलोअप के लिए बुलाते हैं. मिर्गी का उपचार छह माह से एक वर्ष तक चलता है. इसमें धीरे-धीरे दवाओं की मात्रा में कमी और उन्हें लेने के दिनों का अंतर बढ़ता जाता है.